समय कभी कभी उवाचता है अपनी गहरी पैठी अनुभव जनित अनुभूति को अभिव्यक्ति देता हुआ, " अगर सभी चेतना प्राप्त अपने भीतर गहरे उतर निज की खूबियों को जान पाएं, अपनी सीमाएं पहचान जाएं तो वे सभी एकजुट होकर व्यवस्था में बदलाव ले आएं।"
"खुद को समझ पाना, फिर जन जन की समझ बढ़ाना, कर सकता है समाजोपयोगी परिवर्तन। अन्यथा बने रहेंगे सब, लकीर के फ़कीर। जस के तस,जो न होंगे कभी, टस से मस। जड़ से यथास्थिति के बने शिकार, नहीं होंगे जो सहजता से, परिवर्तित।" समय मतवातर कह रहा, " देखो,समझो, काल का पहिया उन्हें किस दिशा की ओर बढ़ा रहा। मनुष्य सतत संघर्षरत रहकर जीवन में उतार चढ़ाव की लहरों में बहकर पहुँचता है मंज़िल पर, लक्ष्य सिद्धि को साध कर।"
" युगांतरकारी उथल पुथल के दौर में परिवर्तन की भोर होने तक,बने रहो शांत वरना अशांति का दलदल, तुम्हें लीलने को है तैयार। यदि तुम इस अव्यवस्था में धंसते जाओगे, तो सदैव अपने भीतर एक त्रिशंकु व्यथा को पैर पसारते पाओगे। फिर कभी नहीं दुष्चक्रों के मकड़जाल से निकल पाओगे। तुम तो बस , खुद को हताश, निराश,थका, हारा, पाओगे।" १४/०५/२०२०.