सब्र,संतोष भीतर व्याप जाएं, इसके लिए कर्मठता जरूरी है। कर्म करने से पीछे हटा नहीं जाए । इसे ढंग से निष्पादित किया जाए। इस हेतु निरन्तर डट कर संघर्ष किया जाए। सतत सब्र, संतोष, सहृदयता, व्यक्ति को संत सरीखा कर देती है, लालसा और वासना तक हर लेती है। कभी कभी देह में से नेह और संतुष्टि का नहीं होना, मन को अशांत कर देता है। अतः जीवन में संतुष्टि का होना निहायत जरूरी है, इस बिन जीवन यात्रा रह जाती अधूरी है, जिससे रिश्तों में बढ़ जाती दूरी है, इसी वज़ह से मन भटकता है, आदमी क़दम क़दम पर अटकता है, और जीव जीवन भर संतुष्टि के द्वार पर दस्तक देने की कोशिश करता है, अपने भीतर कशिश भरना चाहता है, परन्तु कभो कभी ही आदमी सफल हो पाता है, हर कोई संतुष्टि को अनुभव करना चाहता है।