Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
4d
निठल्ले बैठे रह कर
हम कहां पहुंचेंगे ?
अपने भीतर व्याप्त विचारों को  
कब साकार करेंगे?
आज
सुख का पौधा
सूख गया है,
अहंकार जनित गर्मी ने
दिया है उसे सुखा।
आज का मानस
आता है नज़र
तन,मन,धन से भूखा!
कैसे नहीं उसकी जीवन बगिया में पड़ेगा सूखा?
आज दिख रहा वह,लालच के दरिया में बह रहा।
बाहर भीतर से मुरझाया हुआ, सूखा, कुमलहाया सा।

सुन मेरे भाई!
लोभ लालच की प्रवृति ने
नैसर्गिक सुख तुम से छीन लिए हैं ,
आज सब असमंजस में पड़े हुए हैं।

चेतना
सुख का वह बीज है ,
जो मनुष्य को जीवन्त बनाए रखती है।
मनुष्यता का परचम लहराए रखती है।

यह बने हमारी आस्था का केंद्र।
यह सुख की चाहत सब में भर,
करे सभी को संचालित
नहीं जानते कि सुखी रहने की चाहत,से ही
मनुष्य की क्रियाएं,प्रतिक्रियाएं, कामनाएं होती हैं चालित।
लेने परीक्षा तुम्हारी
वासना के कांटे
सुख की राह में बिछाए गए हैं।
भांति भांति के लोभ, लालच दे कर
लोग यहां भरमाए  गए हैं।
नहीं है अच्छी बात,
चेतना को विस्मृति के गर्त में पहुंचा कर,
पहचान छिपाना
और अच्छी भली राह से भटक जाना ।

अच्छा रहेगा, अब
शनै:शनै:
अपनी लोलुपता को घटाना,
धीरे धीरे
अपनी अहंकार जनित
जिद को जड़ से मिटाना।
जिससे रोक लग सके
मनुष्य की  अपनी जड़ें भूलने की प्रवृत्ति पर।

बहुत जरूरी है कि
मनुष्य वृक्ष होने से पहले ही
अपना मूल पहचाने,
वह अपनी जड़ों को जाने।

यही सार्थक रहेगा कि आज मानव
विचारों की कंकरियों के ढेर के मध्य
अपनी जीवंतता से साक्षात्कार  कर पाए।
Written by
Joginder Singh
29
 
Please log in to view and add comments on poems