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Nov 2024
अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
भूले भटके से
होती है
और
जीवन के बीते दिनों के
भूले बिसरे लम्हों की
आती है याद।

ये भूले बिसरे लम्हे
रचाना चाहते संवाद।
ऐसा होने पर
मैं अक्सर रह जाता मौन ।


आजकल
मैं बना हूं भुलक्कड़
मिलने, याद दिलाने,,..के बावजूद
कुछ ख़ास नहीं रहता याद
नहीं कायम कर पाता संवाद।

हां, कभी-कभी भीतर
एक प्रतिक्रिया होती है,
'हम कभी साथ साथ रहें हैं,
यकीन नहीं होता!
कसमें वादे करने और तोड़ने के जुर्म में
हम शरीक रहे हैं,
दोस्ती में हम शरीफ़ रहे हैं,
यकीन नहीं होता।'

अपने और जमाने की
खुद ग़र्ज हवा के बीच
        यारी  दोस्ती,
गुमशुदा अहसास सी
होकर रह गई है
एकदम संवेदनहीन!
और जड़ विहीन भी।


अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
अख़बार, रेडियो पर बजते नगमों,
टैलीविजन पर टेलीकास्ट हो रहे
इंटरव्यू के रूप में
होती है।
सच यह है कि
दोस्त की उपलब्धि से जलन,
अपनी  नाकामियों से घुटन,
आलोचक वक्त की मीठी मीठी चुभन,सरीखी
तीखी प्रतिक्रियाएं होती हैं भीतर
पर... अपने भीतर व्यापे शातिरपने की बदौलत,
सब संभाल जाता हूं...
खुद को खड़ा रख पाता हूं,बस!
खुद को समझा लेता हूं,

....कि समय पर नहीं चलता किसी का वश!!
यह किसी को देता यश, किसी को अपयश,बस!!

अब
कभी कभार
दोस्त, दोस्ती का उलाहना देते हुए मिलते हैं,
तो उनके सामने नतमस्तक हो जाता हूं
उन को हाथ जोड़कर,
उन से हाथ मिलाया,
और अंत में
नज़रों नज़रों से
फिर से मिलने के वास्ते वायदा करता हूं
भीतर ही भीतर
न मिल सकने का डर
सतत् सिर उठाता है, इस डर को दबा कर
घर वापसी के लिए
भारी मन से क़दम बढ़ाता हूं।
कभी कभी
दोस्तों से मुलाक़ात
किसी दुस्वप्न सरीखी होती है
एकदम समय की तेज तर्रार छुरी से कटने की मानिंद।
९/६/२०१६.
Written by
Joginder Singh
47
   Vanita vats
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