मैं :सब कुछ! यह अदृश्य पहचान का जो ताज सब के सिर पर रखा है। यह नाम ही तो है। तुम: ठीक । काम से होती है जिस की पहचान,वह नाम ही तो है। यह न मिले तो आदमी रहे परेशान, वाह,नाम ही तो है। जो सब को भटकाता है। यह बेसब्री का बनता सबब। मैं:सो तो है, नाम विहीन आदमी सोता रह जाता है। उस के हिस्से के मौके कोई अनाम खा जाता है। ऐसा आदमी मतवातर भीड़ में खो जाता है। तुम: खोया आदमी! सोया आदमी!! किसी काम धाम का नहीं जी! करो उसकी अस्मिता की खोज जी। कहीं हार न जाए, वह जीवन की बाजी। मैं : इससे पहले आदमी भीड़ में खो जाए । उसकी भाड़ में जाए , वाली सोच बदली जाए। यही है उस की मानसिकता में बदलाव लाने का तरीक़ा। तुम: सब कुछ सच सच कहा जी। क्या वह इसके लिए होगा राजी? मैं: आदमी जीवन में पहचान बनाने में जुटे । इस के लिए वह अपनी जड़ों से नाता जोड़े । ऐसी परिस्थिति पैदा होने से उसका वजूद बचेगा। वरना वह यूं ही मारा मारा भटकता फिरेगा।