कभी-कभी झूठ मजबूर होकर बोला जाता है, उसे कुफ्र की हद तक तोला जाता है। और कोई जब इसे सुनने, मानने से कर देता इन्कार, तब उस पर दबाव बनाया जाता है, शिकंजा कसा जाता है।
ऐसे में बचाव का झट से एकमात्र उपाय झूठ का सहारा नजर आता है , ऐसा होने पर, झूठ डूबते का सहारा होता है। आदमी जान हथेली पर रखकर बेहिसाब दबाव से जूझते हुए जान लेता है जीवन का सच! विडंबना देखिए!! यह सच नख से शिखा तक झूठ से होता है पूर्णतः सराबोर, चाहकर भी आप जिसका ओर छोर पकड़ नहीं पाते , भले ही आप कितने रहे हों विचलित। कभी-कभी झूठ,सच से ज़्यादा रसूख और असर रखता है, जब वह प्राण रक्षक बनता है। आदमी झूठ का असर महसूस करता है। ऐसे दौर में झूठ,सच पर हावी होकर विवेक तक को धुंधला देता है। आदमी गिरावट का हो जाता शिकार।
सोचता हूं ... आजकल कभी कभी आखिर क्या है आदमी के भीतर कमी? अच्छा भला, कमाता खाता , आदमी क्यों नज़र से गिर जाता है?
रख रहा हूं , अपने आसपास का घटनाक्रम। जब झूठ सच को पूर्णतः ढकता है, आदमी भीतर तक थकता है और तब तब अन्याय का साम्राज्य फलता-फूलता है।
आजकल लोग लोभी होकर बहुत कुछ नज़र अंदाज़ करते हैं, अपने अन्त की पटकथा को निर्देशित करते हैं।