बिकती देह, घटता स्नेह यह सब क्या है? यह सब क्या है? शायद यही स्वार्थ है! हम निस दिन करते रहते ढोंग, कि पाना चाहते हैं परमार्थ। परन्तु पल प्रति पल होते जाते हम उदासीन। सभ्यता के जंगल में यह है एक जुर्म संगीन। जो बिकती देह और बिखरते स्नेह के बीच हमें सतत रहा है लील । जिसने आज़ादी, सुख चैन, लिया है छीन। यह कतई नहीं ठीक हमारे वजूद के लिए।
मूल्य विघटन के दौर में यदि संवेदना बची रहे तो कुछ हद तक न बिके देह बाजार में, और न घटे स्नेह संसार में बने रहें सब इन्सान निःसंदेह। सच! हरेक को प्राप्त हो तब स्नेह, जिसकी खातिर वह भटकता आया है नाना विध ख्वाबों को बुनते हुए वह स्वयं को भरमाता आया है, जो रिश्तों को झूठलाया आया है। और जिस के अभाव में आज का इन्सान निज देह और पर देह तक को टुकड़ों टुकड़ों में गिरवी रखता आया है ! आज उसने बाजार सजाया है!! वो व्यापारी बना हुआ गली गली घूमता है। अपने रिश्तों को नये नये नाम दे, सरे बाजार बेचता पाया गया है। मूल्य विहीन सोच वाला होकर उसने खुद को खूब सताया है। उसने खुद को कहां कहां नहीं भटकाया है? आज रिश्ते बिखरे गये हैं, सभ्यता का मुलम्मा ओढ़े हम जो निखर गये हैं। बिखरे रिश्तों के बीच हम एक संताप मन के भीतर रखें जर्जर रिश्तों को ढोते आ रहे हैं, स्व निर्मित बिखराव में खोते जा रहे हैं, जागे हुए होते हैं प्रतीत, मगर सब कुछ समझ कर भी सोये हुए हैं।