क्या वह समाजवाद के लक्ष्य को अपने केन्द्र में रख आगे बढे ? ..... या फिर वह पूंजीवाद से जुड़े ? ..... या फिर लौटे वह सामंती ढर्रे पर ?
आजकल की राजनीति राजघरानों की बांदी नहीं हो सकती । न ही वह धर्म-कर्म की दासी बन सकती । हां, वह जन गण के सहयोग से... अपनी स्वाभाविक परिणति चुने ।
क्यों न वह ... परंपरागत परिपाटी पर न चलकर परंपरा और आधुनिकता का सुमेल बने ? वह लोकतंत्र का सच्चा प्रतिनिधित्व करे ?
काश ! राजनीति राज्यनीति का पर्याय बन उभरे । देश भर में लगें न कभी लोक लुभावन नारे । नेतृत्व को न करने पड़ें जनता जनार्दन से बहाने । न ही लगें धरने , न ही जलें घर , बाजार , थाने ।