नाहक नायक बनने की पकड़ ली थी ज़िद। अब उतार चढ़ाव की तरंगों पर रहा हूं चढ़ और उतर टूटती जाती है अपने होश खोती जाती है अहम् से जन्मी अकड़।
निरंतर रहा हूं तड़प निज पर से ढीली होती जा रही है पकड़।
एकदम बिखरे खाद्यान्न सा होकर... जितना भी बिखराव को समेटने का करता हूं प्रयास, भीतर बढ़ती जाती भूख प्यास! अंतस में सुनाई देता काल का अट्टहास!! १३/१०/२००६.