अब तो बस! यादों में खंडहर रह गए। हम हो बेबस जिन्दगी में लूटे, पीटे, ठगे रह गए। छोटे छोटे गुनाह करते हुए वक़्त के हर सितम को सह गए।
पर... अब सहन नहीं होता खड़े खड़े और धराशाई गिरे पड़े होने के बावजूद हर ऐरा गेरा घड़ी दो घड़ी में हमें आईना दिखलाए, शर्मिंदगी का अहसास कराए, मन के भीतर गहरे उतर नश्तर चुभोए तो कैसे न कोई तिलमिलाए ! अब तो यह चाहत भीतर हमारे पल रही है, जैसे जैसे यह जिंदगी सिमट रही है कि कोई ऐसा मिले जिंदगी में, जो हमें सही डगर ले जाए। बेशक वह रही सही श्वासों की पूंजी के आगे विरामचिन्ह,प्रश्नचिन्ह,विस्मयादि बोधक चिन्ह लगा दे । बस यह चाहत है, वह मन के भीतर जीने ,मरने,लड़ने,भटकने,तड़पने का उन्माद जगा दे। ९/६/२०१६.