अब कभी कभी झूठ बोलने की खुजली सिर उठाने लगी है। जो सरासर एक ठगी है।
अक्सर सोचता हूँ, कौन सा झूठ कहूँ? ... कि बने न भूले से कभी भी झूठ की खुजली अपमान की वज़ह। होना न पड़े बलि का बकरा बन बेवजह दिन दिहाड़े झूठे दंभ का शिकार। न ही किसी दुष्ट का कोप भाजन पड़े बनना और कहीं लग न जाए घर के सामने कोई धरना।
अचानक उठने लगता है एक ख्याल, मन में फितूर बन कर
अतः कहता हूँ... चुपके से , खुद को ही, एक नेता जी जो थे अच्छे भले मंहगाई के मारे दिन दिहाड़े चल बसे! (बतौर झूठ!!)
आप सोचेंगे एक बार जरूर ... कि नेता मंहगाई से लाभ उठाते हैं, वे भ्रष्टाचार के बूते माया बटोर कर मंहगाई को लगाते हैं पर! फिर वे कैसे मंहगाई की वज़ह से चल बसे।
मैं झूठ बोलकर अपनी खारिश मिटाना चाहता था कुछ इस तरह कि... लाठी भी न टूटे, भैंस भी बच जाए, और चोर भी मर जाए।
इस ख्याल ने रह रह कर सिर उठाया। मैंने भी मंहगाई की आड़ ले तथा कथित नेता जी को जहन्नुम जा पहुंचाया। कभी कभी झूठ भी अच्छा लगता है सच की तरह। (है कि नहीं?) बहुत से मंहगाई त्रस्त जरूर चाहते होंगे कि... आदमी झूठ तो बोले मगर उसकी टांगें छुटभैये नेता के गुर्गों के हाथों न टूटें! बल्कि मन को मिले कैफ़ियत, खैरियत के झूले।
अब जब कभी भी झूठ बोलने की खुजली सिर उठाने लगती है, मुझे बेशर्म मानस को शिकार बनाने का करने लगती है इशारा। मैं खुद को काबू में करता हूँ। मुझे भली भांति विदित है, झूठ हमेशा मारक होता है, भले वह युद्ध के मैदान में किसी धर्मात्मा के मुखारविंद से निकला हो। झूठ के बाद की ठोकरें झूठे सच्चे को सहज ही अकलबंद से अकलमंद बना देती हैं, झूठ की खुजली पर लगाम लगा देती हैं।