मूल्य विघटन के दौर में नहीं चाहते लोग जागना , वे डरते हैं तो बस भीतरी शोर से।
बाह्य शोर भले ही उन्हें पगला दे! बहरा बना दे!! ध्वनि प्रदूषण में वे सतत इज़ाफ़ा करते हैं। बिन आई मौत का आलिंगन करते हैं। पर नहीं चेताते, न ही स्वयं जागते, सहज ही वे बने रहते घाघ जी! मूल्य विघटन के दौर में बुराई और खलनायकों का बढ़ रहा है दबदबा और प्रभाव, और... सच, अच्छाई और सज्जनों का खटक रहा है अभाव। लोग डर, भय और कानून जड़ से भूले हैं, आदमियत के पहरेदार तक अब बन बैठे लंगड़े लूले हैं। कहीं गहरे तक पंगु! वे लटक रहे हवा में बने हुए हैं त्रिशंकु!! अब कहना पड़ रहा है जनता जनार्दन की बाबत, अभी नहीं जगे तो शीघ्र आ जाएगी सबकी शामत। लोग /अब लगने लगे हैं/ त्रिशंकु सरीखे, जो खाते फिरते बेशर्मी से धक्के! घर,बाहर, बाजारों में!! त्रिशंकु सरीखे लोग कैसे मनाए अब ? आदमियत की मृत्यु का शोक! जड़ विहीन, एकदम संवेदना रहित होंगे उन्हें हो गया है विश्व व्यापी रोग!! १६/०२/२०१०.