कैसी नासमझी भरी सियासत है यह। भीड़ भरी दुनिया के अंदर तक जन साधारण को महंगाई से भीतर ही भीतर त्रस्त कर भयभीत करो इस हद तक कि जिंदगी लगने लगे एक हिरासत भर।
कैसी नासमझी भरी हकीकत है यह कि विकास के साथ साथ महंगाई का आना निहायत जरूरी है।
कैसी शतरंज के बिसात पर अपना वजूद जिंदा रखने की कश्मकश के दौर में नेता और अफसरशाही की मूक सहमति से गण तंत्र दिवस के अवसर पर बस किराया यकायक बढ़ा दिया जाता है। आम आदमी को लगता है कि उसकी आज़ादी को काबू में करने के लिए उसकी आर्थिकता पर अधिभार लगा दिया गया है।
शर्म ओ हया के पर्दे सत्ता की दुल्हनिया सरीखे झट से गिराने को तत्पर नेतृत्व शक्तियां! किश्तीनुमा टोपियां!! धूमिल और उज्ज्वल पगडंडियां!!! कुछ तो शर्म करो। गणतंत्र के मौके पर मंहगाई का तोहफ़ा तो न दो। तोहफ़ा देना ही है तो एक दिन आगे पीछे कर के दे दो! ताकि टीस ज़्यादा तीव्र महसूस न हो। महसूस करना, शिद्दत से महसूस कराना, एक अजब तोहफ़ा नहीं तो क्या है? यहां सियासत के आगे सब सियाह है, स्वाह है जी!