आज फिर से झूठ बोलना पड़ा! अपने सच से मुँह मोड़ना पड़ा! सच! मैं अपने किए पर शर्मिंदा हूँ, तुम्हारा गला घोटा, बना खोटा सिक्का, भेड़ की खाल में छिपा दरिंदा हूँ। सोचता हूँ... ऐसी कोई मज़बूरी मेरे सम्मुख कतई न थी कि बोलना पड़े झूठ, पीना पड़े ज़हर का घूंट।
क्या झूठ बोलने का भी कोई मजा होता है? आदमी बार बार झूठ बोलता है! अपने ज़मीर को विषाक्त बनाता है!! रह रह अपने को दूसरों की नज़रों में गिराता है।
दोस्त, करूंगा यह वायदा अब खुद से कि बोल कर झूठ अंतरात्मा को करूंगा नहीं और ज्यादा ठूंठ और न ही करूंगा फिर कभी अपनी जिंदगी को जड़ विहीन! और न ही करूंगा कभी भी सच की तौहीन!! १६/०२/२०१०