पिता श्री, एक दिन अचानक आपने कहा था जब, "मैं तुम से कुछ भी अपेक्षा नहीं करता। बस तुम्हें एक काम सौंपना चाहता हूँ। वह काम है... जाकर अपनी प्रसन्नता खोजो!" यह सुनकर अनायास तब मैं खिलखिलाकर हंस पड़ा था ।
अब महसूस होने लगा है, जीवन में कुछ ठगा गया है। अब क़दम दर कदम लगता है कि आजकल प्रसन्नता ढूंढ़ी जाती है चारों ओर.... अंदर क्या बाहर... सुप्रिया के इर्द गिर्द भंवरे सा मंडरा कर शेखचिल्ली बन खयाली पुलाव पका कर अपनों को मूर्ख बना कर
प्रसन्नता ढूंढना अब एक चुनौती बन गई है सौ,सौ प्रयास के बाद फिर भी कुछ गारंटी नहीं है कि वह मिले, मिले तो किसी दिलजले मनचले को जा मिले अन्यथा.... असफलता का चल पड़ता एक सिलसिला, आदमी खुद के भंवरजाल में धंसा, किस से करे शिकवा गिला। आदमी का अंतर्मानस बन जाता एक शिला!
पिता, आज अंतर्द्वंद्वों से घिरा मैं आप के कहे पर करता हूँ सोच विचार तो लगने लगा है कि सचमुच प्रसन्नता खोजना, अपनी खुशी तलाशना, आखिरकार उसे दिल ओ दिमाग से वरना, किसी एवरेस्ट सरीखी दुर्गम शिखर पर चढ़ना है ।
तुम्हारा "अपनी प्रसन्नता खोजो " कहना आज की युवा पीढ़ी के लिए एक अद्भुत पैग़ाम है।
आज मैं बुध बनना चाहता हूँ। पर सच है कि मैं इर्द गिर्द की चकाचौंध से भ्रमित बुद्धू सा हो गया हूँ। बेशक प्रबुद्ध होने का अभिनय कर लगातार एक फिरकी बना नाच रहा हूँ।