प्रवास की चाहत बेशक भीतर छुपी है, परन्तु प्रयास कुछ नहीं किया, जहां था, वहीं रुका रहा। दोष किस पर लगाऊं? अपनी अकर्मण्यता पर..? या फिर अपने हालात पर? सच तो यह है कि असफलता बहानेबाजी का सबब भी बनती है। सब कुछ समझते बूझते हुए भी भृकुटी तनती है। १७/१०/२०२४