जिस मानव का सिद्ध मनोरथ मृत्यु क्षण होता संभव, उस मानव का हृदय आप्त ना हो होता ये असंभव। ============ ना जाने किस भाँति आखिर पूण्य रचा इन हाथों ने , कर्ण भीष्म न कर पाए वो कर्म रचा निज हाथों ने। =========== मुझको भी विश्वास ना होता है पर सच बतलाता हूँ, जिसकी चिर प्रतीक्षा थी तुमको वो बात सुनाता हूँ। =========== तुमसे पहले तेरे शत्रु का शीश विच्छेदन कर धड़ से, कटे मुंड अर्पित करता हूँ, अधम शत्रु का निजकर से। =========== सुन मित्र की बातें दुर्योधन के मुख पे मुस्कान फली, मनो वांछित सुनने को हीं किंचित उसमें थी जान बची। =========== कैसी भी थी काया उसकी कैसी भी वो जीर्ण बची , पर मन के अंतर तम में तो अभिलाषा कुछ क्षीण बची। ========== क्या कर सकता अश्वत्थामा कुरु कुंवर को ज्ञात रहा, कैसे कैसे अस्त्र शस्त्र अश्वत्थामा को प्राप्त रहा। ========= उभर चले थे मानस पट पे दृश्य कैसे ना मन माने , गुरु द्रोण के वधने में क्या धर्म हुआ था सब जाने। ========= लाख बुरा था दुर्योधन पर सच पे ना अभिमान रहा , धर्मराज सा सच पे सच में ना इतना सम्मान रहा। ========= जो छलता था दुर्योधन पर ताल थोक कर हँस हँस के, छला गया छलिया के जाले में उस दिन फँस फँस के। ========= अजय अमिताभ सुमन सर्वाधिकार सुरक्षित
किसी व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य जब मृत्यु के निकट पहुँच कर भी पूर्ण हो जाता है तब उसकी मृत्यु उसे ज्यादा परेशान नहीं कर पाती। अश्वत्थामा भी दुर्योधनको एक शांति पूर्ण मृत्यु प्रदान करने की ईक्छा से उसको स्वयं द्वारा पांडवों के मारे जाने का समाचार सुनाता है, जिसके लिए दुर्योधन ने आजीवन कामना की थी । युद्ध भूमि में घायल पड़ा दुर्योधन जब अश्वत्थामा के मुख से पांडवों के हनन की बात सुनता है तो उसके मानस पटल पर सहसा अतित के वो दृश्य उभरने लगते हैं जो गुरु द्रोणाचार्य के वध होने के वक्त घटित हुए थे। अब आगे क्या हुआ , देखते हैं मेरी दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया" के इस 35 वें भाग में।