============================ शत्रुदल के जीवन हरते जब निजबाहु खडग विशाल, तब जाके कहीं किसी वीर के उन्नत होते गर्वित भाल। निज मुख निज प्रशंसा करना है वीरों का काम नहीं, कर्म मुख्य परिचय योद्धा का उससे होता नाम कहीं। ============================ मैं भी तो निज को उस कोटि का हीं योद्धा कहता हूँ, निज शस्त्रों को अरि रक्त से अक्सर धोता रहता हूँ। खुद के रचे पराक्रम पर तब निश्चित संशय होता है, जब अपना पुरुषार्थ उपेक्षित संचय अपक्षय होता है। ============================ विस्मृत हुआ दुर्योधन को हों भीमसेन या युधिष्ठिर, किसको घायल ना करते मेरे विष वामन करते तीर। भीमसेन के ध्वजा चाप का फलित हुआ था अवखंडन , अपने सत्तर वाणों से किया अति दर्प का परिखंडन। =========================== लुप्त हुआ स्मृति पटल से कब चाप की वो टंकार, धृष्टद्युम्न को दंडित करते मेरे तरकश के प्रहार। द्रुपद घटोत्कच शिखंडी ना जीत सके समरांगण में, पांडव सैनिक कोष्ठबद्ध आ टूट पड़े रण प्रांगण में। =========================== पर शत्रु को सबक सिखाता एक अकेला जो योद्धा, प्रतिरोध का मतलब क्या उनको बतलाता प्रतिरोद्धा। हरि कृष्ण का वचन मान जब धारित करता दुर्लेखा, दुख तो अतिशय होता हीं जब रह जाता वो अनदेखा। =========================== अति पीड़ा मन में होती ना कुरु कुंवर को याद रहा, सबके मरने पर जिंदा कृतवर्मा भी ना ज्ञात रहा। क्या ऐसा भी पौरुष कतिपय नाकाफी दुर्योधन को? एक कृतवर्मा का भीड़ जाना नाकाफी दुर्योधन को? =========================== अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित
किसी व्यक्ति के चित्त में जब हीनता की भावना आती है तब उसका मन उसके द्वारा किये गए उत्तम कार्यों को याद दिलाकर उसमें वीरता की पुनर्स्थापना करने की कोशिश करता है। कुछ इसी तरह की स्थिति में कृपाचार्य पड़े हुए थे। तब उनको युद्ध स्वयं द्वारा किया गया वो पराक्रम याद आने लगा जब उन्होंने अकेले हीं पांडव महारथियों भीम , युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, द्रुपद, शिखंडी, धृष्टद्युम आदि से भिड़कर उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया था। इस तरह का पराक्रम प्रदर्शित करने के बाद भी वो अस्वत्थामा की तरह दुर्योधन का विश्वास जीत नहीं पाए थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था आखिर किस तरह का पराक्रम दुर्योधन के विश्वास को जीतने के लिए चाहिए था? प्रस्तुत है दीर्घ कविता “दुर्योधन कब मिट पाया” का इक्कीसवां भाग।