बूंद तेरा रूप अनूप ईश्वर का जैसे सुक्ष्म रूप बादलों से बरसती है जैसे गागर छलकती है।। 1।। तुझमे ही सागर है समाया तुझमे ही जीवन है पाया तुझ बीन सबही है सुना गंगा रूप में बहे सगुना।। 2।। तुझसे ही प्रकृती इतराती धानी चुनर ओढ़ इठलाती तू ही दे उसे रूप सुनहरा दमके ज्युं दुल्हन का चेहरा।। 3।। लागे जैसे मोतियों की लड़ी धरती माँ के गले हो पड़ी टूटे ना ये मोतीयों की माला प्रकृती ले रूप विकराला।। 4।।