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Mar 2018
टूट गयी थी हिम्मतें , रूठ  गयी थी चाहतें ,
मंज़िल दूर थी नज़रों से, बंजर पड़े थे रास्ते ।

सजदे हैं उन पलों के , जब निकले थे सफरनामे में ,
याद करते हैं उन  यादों को, जी लेते हैं उसी फ़साने में ।
जिन  ख़्वाबों  के पीछे भागे थे , वो ज़िन्दगी अब ख्वाब है ,
अब तो लगती हर गुफ्तगू एक निंदनीय अपवाद है ।

शून्य ही था ख्यालों में, ख़याल थे शून्य के वास्ते,
मंज़िलें दूर थी नज़रों से, बंजर पड़े थे रास्ते ।

आज अचानक दिल  में एक नयी उमंग सी आयी है ,
नखरीली हवा की थपकियाँ जैसे सृजन का संदेसा लायी है।
झलकियां उस मज़िल की लब पे बनके हंसी आयी है,
तपते रेगिस्तान में मानो सावन की घटा छायी है।

रुकता नहीं है समय, थमती नहीं हैं चाहतें ,
निकल पड़ फिर से सफर में, चल तुझे पुकारे रास्ते ।।
Written by
Shubh Shukla
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