कविता कल्पना है चिज बड़ी ए शाहब मैं मन से बनें दो शब्द गुनगुनाता हूँ ॥
मैं बस शब्द का सृगार यार करता हूँ अपने अनूभवों का रंग उसमें भरता हूँ ॥
झूठी हर कहानी हीं सरल सी होती है बस यह सोच कर ही दो शब्द गुनगुनाता हूँ ॥ मै किखता नहीं स्याही हिं बस बहाता हूँ ॥
कितने हिं कलम का मात्र मै अपराधि हूँ उनके रक्त का अपमान किया है, मैनें,
अंधी जनता , सच्ची कहानी लिख-लिख कर कितने स्याही को बद्नाम किया है | मैंने कितनो कि कलम, साम्मान ले रही सबकी ह्त्या को भी, वलिदान कहा है जिसनें वाश्ना को कहे जो रंग नया जिवन कि अपराधों को विरता का तथ्य देते है ॥
पर मेरी कलम यह सब कला में असफल है । ऐसा लिखने से पहले, टुट जाती है । मैं लिखता नहीं स्याही हिं बस बहाता हूँ ।
कबिता कल्पना है चिज बड़ी ए शाहब, मैं मन से बने दो शब्द गुनगुनाता हूँ ॥