आज यूँही मन बोल उठा चलो आओ कुछ लिखते है,
रंगीन विचारों की स्याही से कागज़ की सफेदी को घिसते है.
है उथल पुथल शब्दों का प्रवाह यार वो,
हो अल्हड मदमस्त नीर धार जो.
स्वछ कल-कल निर्मल श्वेत सा,
और तीखा तीर तेज़ सा,
हर लेख कलम की नोक सा.
ए सोच,
इतना क्यों समय खाती है,
देर इतनी क्यों लगाती है,
क्या तुझमें वो बूत नहीं,
क्यों बाँध तोड़ नहीं पाती है.
है मन की गंन्द,
जो कभी रहे न बंन्द,
जो आज उतर आई इन शब्दों में,
बानी अम्मा की बाड़ी सी सुगंध.
है पता नहीं शायद तुझे के,
तुझ संग प्रीत निभानी मुझे कितनी महंगी पड़ती है,
रातोँ की नींद गवनई पड़ती है.
भू कराह उठी मेरी,
क्यों मौन है उत्पत्ति मेरी,
क्या नहीं है संचार रक्त का,
रंग लाल भी तो है इस वक़्त का.
बोल है मेरे, शब्द है मेरे,
है स्वार्थ मेरा, भावार्थ मेरा,
क्या लिखू जो जग पढ़े,
इस जग से जुड़े है विषय बड़े,
फिर सोचु जो विस्मित है खुद के ही कोतूहल में,
क्यों उसे लिखू, खुद को ना लिख दू में अपने इस पल में.
खुश हु पर संतुष्ट नहीं,
चुप हु पर में मौन नहीं,
चीख दबी है आतों मैं,
शायद दिशा इसीलिए है आज बातों में.
तो, चलो आओ कुछ लिखते है,
रंगीन विचारों की स्याही से कागज़ की सफेदी को घिसते है.