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 May 2017
Mansi

चलते चलते, जब कभी
थक जाती हूँ,
वक़्त की गिरहें
जब सुलझते नहीं सुलझती हैं
सांसों में भी जब शिकन पड़ने लगती है
और माथे पर सिलवटें उतरने लगती हैं
निगाहें जब कभी खुश्क सी हो जाती हैं
और मुस्कराहट डूबने सी लगती है
या जब कभी,
चाँद करवटों के बहाने से मुंह फ़ेरने लगता है
और सड़क के किनारे पर पड़ा, एक पत्थर
थोड़ा और नुकीला लगने लगता है
लहू का रंग जब और गहराने लगता है
धडकनें जब धीमी पड़ने लगती हैं
और नाराज़ी परवान चढ़ने लगती है
तब-तब
मैं लफ़्ज़ों के साथ चीर-फाड़ करती हूँ
उनकी खाल तक उधेड़ देती हूँ
बेशर्मी की सारी हदें तोड़ कर
उन्हें नग्न कर
कागजों में भीतर तक गोद देती हूँ!
जबरन उन्हें नोंचती हूँ, लहुलुहान कर देती हूँ
अपना गुस्सा या अपना दर्द या अपने आंसू
सब उन में गाड़ देती हूँ
और अंत में,
अपना सारा बोझ इन लफ़्ज़ों के
के बाजुओं पर लाद कर
बड़े ही इत्मीनान से
बिस्तर का एक कोना पकड़ कर
नींद के आगोश में समां जाती हूँ
और मेरे वो लफ्ज़ मेरे वो शब्द
कागज़ रुपी मृत्युशय्या पर पड़े पड़े
कराहते हैं!!
आवाज़ देते हैं
लेकिन मैं बड़ी ही बेशर्मायी से
उन्हें नज़र अन्दाज़ कर देती हूँ!
इतना सब करने पर भी
वो मुझसे रूठ ते नहीं हैं
मेरे लफ्ज़ मेरे शब्द
मुझसे भी ज़्यादा बेशर्म हैं!
        - मानसी सिंह

— The End —