Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Mansi May 2017
मैं हर किसी की हूँ
मेरा कोई नहीं
मुझमें हर कोई है
मैं किसी की नहीं
अमृत नहीं मैं शराब हूँ
प्रियसी नहीं मैं शबाब हूँ
शरीर नहीं ज़िस्म हूँ मैं
नूर नहीं हुस्न हूँ मैं

दिन नहीं ढलती शाम हूँ मैं
महफिलों में छ्लकता जाम हूँ मैं
चंचल नहीं, चटख हूँ मैं
हर रोज़ रिसता कलंक हूँ मैं
ख़ास नहीं, महज़ एक एहसास हूँ
ग्राहकों की बौखलाती हुई सी प्यास हूँ

गिद्धों की भूख हूँ, ढीठ हूँ मनहूस हूँ
खाकर छोड़ी और रौंदी हुई घांस फूंस हूँ
मन से अप्रिय तन से प्रिया हूँ मैं
लांछित और अपमानित सिया हूँ मैं
शरीर नहीं ज़िस्म हूँ मैं
काम क्रीड़ा की एक किस्म हूँ मैं


खाल नहीं माल हूँ मैं
ज़िस्म का महकता जाल हूँ मैं
इठलाती नहीं बुलाती हूँ मैं
बाहों में अपनी सुलाती हूँ मैं
फूल नहीं काँटा हूँ मैं
ग्राहकों की स्त्रियों पर पड़ा चांटा हूँ मैं
कुछ के लिए सुगंध हूँ
सिद्धान्तवादियों क लिए दुर्गन्ध हूँ
क्यूँ सब मुझ में मग्न
और मैं नग्न हूँ...

रानी नहीं दासी हूँ मैं
किसी के लिए ताज़ी तो किसी के लिए बासी हूँ मैं
बेख़ौफ़ हूँ मैं बेनाम हूँ मैं
बेशर्म बेहया बदनाम हूँ मैं
नग्न हूँ मैं निर्वस्त्र हूँ मैं
वरदान नहीं अभिशाप हूँ मैं
लोगों के अनुसार किसी का पाप हूँ मैं!
कुछ के लिये मज़ा हूँ मैं
मेरे परिवार के लिए सज़ा हूँ मैं


सती नहीं रति हूँ मैं
हर रोज़ हर किसी में बँटी हूँ मैं
दो सौ या तीन सौ में बिकती हूँ मैं
काम की आग में हर रोज़ सिकती हूँ मैं
मृगनयनी भी मैं काम प्रिया भी मैं,
बेशर्म बेहूदा बेहया भी मैं
जीने का मतलब मेरे लिए एक समझौता है
हर रोज़ मेरे भीतर कोई घुसता है

मुझे पाना आसान है, मुझे समझना जटिल है
मेरा ज़िस्म गिद्धों की एक महफ़िल है
फिर भी
निराश हूँ मैं हताश नहीं
लाचार हूँ मैं कमज़ोर नहीं
जानती हूँ
काली इस रात की कोई भोर नहीं

वेश्या हूँ मैं? तवायफ हूँ मैं?
कुलटा हूँ मैं कुटिल हूँ मैं?
रंडी हूँ मैं फूहड़ भी मैं?
बेशर्म मैं, खूंखार मैं
लावारिस मैं फटेहाल भी मैं
महखानों में बेहाल भी मैं
न जाने कितनों का छिपा इतिहास हूँ
कितनों की बुझाती मैं प्यास हूँ!



क्यूँ मैं मैं हर किसी की हूँ
क्यूँ मेरा कोई नहीं
क्यूँ मुझमें हर कोई है
क्यूँ मैं किसी की नहीं
Mansi Apr 2017

चलते चलते, जब कभी
थक जाती हूँ,
वक़्त की गिरहें
जब सुलझते नहीं सुलझती हैं
सांसों में भी जब शिकन पड़ने लगती है
और माथे पर सिलवटें उतरने लगती हैं
निगाहें जब कभी खुश्क सी हो जाती हैं
और मुस्कराहट डूबने सी लगती है
या जब कभी,
चाँद करवटों के बहाने से मुंह फ़ेरने लगता है
और सड़क के किनारे पर पड़ा, एक पत्थर
थोड़ा और नुकीला लगने लगता है
लहू का रंग जब और गहराने लगता है
धडकनें जब धीमी पड़ने लगती हैं
और नाराज़ी परवान चढ़ने लगती है
तब-तब
मैं लफ़्ज़ों के साथ चीर-फाड़ करती हूँ
उनकी खाल तक उधेड़ देती हूँ
बेशर्मी की सारी हदें तोड़ कर
उन्हें नग्न कर
कागजों में भीतर तक गोद देती हूँ!
जबरन उन्हें नोंचती हूँ, लहुलुहान कर देती हूँ
अपना गुस्सा या अपना दर्द या अपने आंसू
सब उन में गाड़ देती हूँ
और अंत में,
अपना सारा बोझ इन लफ़्ज़ों के
के बाजुओं पर लाद कर
बड़े ही इत्मीनान से
बिस्तर का एक कोना पकड़ कर
नींद के आगोश में समां जाती हूँ
और मेरे वो लफ्ज़ मेरे वो शब्द
कागज़ रुपी मृत्युशय्या पर पड़े पड़े
कराहते हैं!!
आवाज़ देते हैं
लेकिन मैं बड़ी ही बेशर्मायी से
उन्हें नज़र अन्दाज़ कर देती हूँ!
इतना सब करने पर भी
वो मुझसे रूठ ते नहीं हैं
मेरे लफ्ज़ मेरे शब्द
मुझसे भी ज़्यादा बेशर्म हैं!
        - मानसी सिंह

— The End —