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राजनीति में
मुद्दाविहीन होना
नेतृत्व का
मुर्दा होना है।
नेतृत्व
इसे शिद्दत से
महसूस कर गया।
अब इस सब की खातिर
कुछ कुछ शातिर बन रहा है।
यही समकालीन
राजनीतिक परिदृश्य में
यत्र तत्र सर्वत्र
चल रहा है।
बस यही रोना धोना
जी का जंजाल
बन रहा है।
नेता दुःखी है तो बस
इसीलिए कि
उसका हलवा मांडा
पहले की तरह
नहीं मिल रहा है।
उसका और उसके समर्थकों का
काम धंधा ढंग से
नहीं चल रहा है।
जनता जनार्दन
अब दिन प्रतिदिन
समझदार होती जा रही है।
फलत:
आजकल
उनकी दाल
नहीं गल रही है।
समझिए!
ज़िन्दगी दुर्दशा काल से
गुज़र रही है।
राजनीति
अब बर्बादी के
मुहाने पर है!
बात बस अवसर
भुनाने भर की है ,
दुकानदारी
चलाने भर की है।
मुद्दाविहीन
हो जाना तो बस
एक बहाना भर है।
असली दिक्कत
ज़मीर और किरदार के
मर जाने की है ,
हम सब में
निर्दयता के
भीतर भरते जाने की है।
इसका समाधान बस
गड़े मुर्दों को
समय रहते दफनाना भर है ,
मुद्दाविहीन होकर
निर्द्वंद्व होना है
ताकि मुद्दों के न रहने के बावजूद
सब सार्थक और सुरक्षित
जीवन पथ पर चलते रहें।
वे सकारात्मक सोच के साथ
जीवन में दुविधारहित होकर आगे बढ़ सकें ,
आपातकाल में
डटे रहकर संघर्ष कर सकें।
०४/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
रात सपने में
मुझे एक मदारी दिखा
जो 'मंदारिन ' बोलता था!
वह जी भर कर कुफ्र तोलता था!!
अपनी धमकियों से वह
मेरे भीतर डर भर गया ।
कहीं
गहराई में
एक आवाज सुनी ,
'.. डर गया सो मर गया...'  
मैं डरपोक !
कायम कैसे रखूं अपने होश ?
भीतर कैसे भरूं जिजीविषा और जोश?
यह सब सोचता रह गया ।
देखते ही देखते
सपने का तिलिस्म सब ढह गया।
जागा तो सोचा मैंने
अरे !मदारी तो
सामर्थ्यवान बनने के लिए कह गया।
अब तक मेरा देश
कैसे जुल्मों सितम सह गया?
56 · Nov 2024
संतुष्टि
Joginder Singh Nov 2024
सब्र,संतोष
भीतर
व्याप जाएं,
इसके लिए
कर्मठता जरूरी है।
कर्म करने से पीछे हटा नहीं जाए ।
इसे ढंग से निष्पादित किया जाए।
इस हेतु निरन्तर डट कर संघर्ष किया जाए।
सतत
सब्र, संतोष, सहृदयता,
व्यक्ति को संत सरीखा
कर देती है,
लालसा और वासना तक
हर लेती है।
कभी कभी
देह में से नेह और संतुष्टि का
नहीं होना,
मन को अशांत
कर देता है।
अतः
जीवन में संतुष्टि का होना
निहायत जरूरी है,
इस बिन जीवन यात्रा
रह जाती अधूरी है,
जिससे
रिश्तों में
बढ़ जाती दूरी है,
इसी वज़ह से मन भटकता है,
आदमी क़दम क़दम पर अटकता है,
और जीव जीवन भर
संतुष्टि के द्वार पर
दस्तक देने की कोशिश करता है,
अपने भीतर कशिश भरना चाहता है,
परन्तु
कभो कभी ही
आदमी सफल हो पाता है,
हर कोई संतुष्टि को
अनुभव करना चाहता है।
Joginder Singh Nov 2024
तमाम खाद्यान्न पदार्थों में
खिचड़ी का मिलना
किसी वरदान से कम नहीं।
इसे खाकर तो देख सही।



गले में खिचखिच     खा खिचड़ी
जीवन में खिचखिच  गा   और
खिचड़ी भाषा में पढ़   कबीर जी का सच
कैसे नहीं होगा प्राप्त ?
जीवन में आस्था का सुरक्षा कवच !अगर म
अनायास सीख पाओगे स्वयं को रखना शांत।

खिचड़ी खा, खिचड़ी भाषा के कवि को गुन
और... हां...तूं  मन मेरे
अपने भीतर का राग सुनाकर, उसे ही गुनाकर !

जीवन भरने करना दूर अपने को खिचड़ी से
बनना मस्त मलंग खाकर, जीकर खिचड़ी के संग
मिलेंगे जीवन के खोये रंग,
जीवन न होगा और अधिक बदरंग, मटमैला,
यह जीवन नहीं होगा प्रतीत एक मेला -झमेला ।
०९/१०/२००८.
Joginder Singh Dec 2024
अब
सच का सामना
करने से
लोग कतराते हैं।

सच के
सम्मुख पहुँच कर
उनके पर
जो कतरे जाते हैं।

अच्छे
खासे इज़्ज़तदर
बेपर्दा हो जाते हैं,
इसलिए
हम बहुधा
सच सुनकर
सकपका जाते हैं,
एक दूसरे की
बगलें झांकने लग जाते हैं।

बेशक
हम इतने भी
बेशर्म नहीं हैं,
कि जीवन भर
चिकने घड़े बने रहें।
हम भीतर ही भीतर
मतवातर कराहते रहें।

हमें
विदित है
भली भांति कि
कभी न कभी
सभी को
सच का सामना
करना ही पड़ेगा ,
तभी जीवन
स्वाभाविक गति से
गंतव्य पथ पर
आगे बढ़ पाएगा।
जीवन सुख से भरपूर हो जाएगा।
२८/१२/२०२४.
55 · Dec 2024
ਮੜ੍ਹਕ
Joginder Singh Dec 2024
ਇਸ਼ਕ ਹੋਵੇ
ਤਾਂ ਅਣਖ ਨਾਲ ‌‌!
ਬੰਦਾ ਜੀਵੇ
ਮੜ੍ਹਕ ਨਾਲ !!

ਕਹਿੰਦੀ ਹੈ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ,
ਮੜ੍ਹਕ ਨਾਲ ਜੀਇਆ ਕਰੋ ।
ਕਿਵੇਂ ਨਾ ਮਿਲੂ ਸੁਕੂਨ ?
55 · Mar 22
अनुभव
जीवन में अनुभव
मित्र सरीखा होता है ,
बगैर अनुभव के
जीवन फीका फीका सा लगता है ,
इसमें प्रखरता
और तीखापन लाने के लिए
अनुभव का होना बहुत जरूरी है।
अनुभव
एक दिन में नहीं आता,
इसके लिए
जीवन की भट्ठी में
खुद को है तपाना पड़ता है,
तब कहीं जाकर
जीवन कुंदन बनता है,
वह सुख,समृद्धि और संपन्नता का
आधार बनता है।
अनुभव युक्त होने से
संसार का कारज व्यवहार
आगे बढ़ता है।
इस को अनुभूत करने के निमित्त
होना चाहिए शांत चित्त।
अतः मनुष्य अपनी दिनचर्या में
कठोर मेहनत को शामिल करे,
ताकि जीवन में आदमी
निरंतर आगे बढ़ता रहे।
आदमी अनुभव के बूते
सदैव चेतना युक्त
प्रगतिशील बना रहे,
वह संतुलित दृष्टिकोण
अपने जीवन में
विकसित कर सके ,
अपने व्यक्तित्व में निखार लाता रहे
और सब्र ,संतोष ,संतुष्टि को प्राप्त कर सके।
22/03/2025.
Joginder Singh Dec 2024
इस बार
लगभग दो महीने तक
हुई नहीं थी बारिश
सोचा था आनेवाला मौसम पता नहीं
कैसा रहने वाला है ?
शायद सर्दियों का लुत्फ़
और क्रिसमस का जश्न फीका रहने वाला है।

परन्तु
प्रभु इच्छा
इंसान के मनमाफ़िक रही
क्रिसमस की पूर्वसंध्या पर
अच्छी खासी खुशियों का आगमन लाने वाली
प्रचुर मात्रा में बर्फबारी हुई
क्रिसमस और नए साल के आगाज़ से पूर्व ही
तन,मन और जोशोखरोश से
क्रिसमस की तैयारी
सकारात्मक सोच के साथ की।

मन के भीतर रहने वाला
घर भर को खुशियों की सौगात देकर जाने वाला
सांता क्लॉस  आप सभी को खुशामदीद कहता है ,
वह आने वाले सालों में
आपकी ख्वाइशों को पूर्ण करने का अनुरोध प्रभु से करता है।
आप भी जीसस के आगमन पर्व पर
विश्व शांति और सौहार्दपूर्ण सहृदयता के लिए कीजिए
मंगल कामनाएं!
ऐसा आज आपका प्रिय भजन गाता हुआ
सांता क्लॉस चाहता है।
वह आपके जीवन के हरेक पड़ाव पर
सफलता हासिल करने का आकांक्षी है।

२५/१२/२०२४.
यदि आपके मन में भरा हो गुब्बार,
व्यवस्था को लेकर
तो बग़ैर देरी किए
तंज़ कसने शुरू करो
सब पर
बिना कोई संकोच किए !
मगर ध्यान रहे।
जो भी तंज़ कसो,
जिस पर भी तंज़ कसो,
पूरे रंग में आकर
दिल से कसो !
ताकि मन में बस चुके गुब्बार
तनाव की वज़ह न बनें
और कहीं
अच्छाइयों की बाबत भी
नहीं ,नहीं ,कहते कहते,
और करते करते,
कुंठा के बोझ को सहते सहते,
अहंकार का गुब्बारा फट कर
सब कुछ को नेस्तनाबूद न कर दे,
समस्त प्रगति और विकास को
सिरे से बर्बाद न कर दे,
इसलिए तंज़ कसना ज़रूरी है,
यह गरीब गुरबे मानस की मज़बूरी है।
अतः तंज़ जी भर कर कसो,
अपने भीतर के तनावों को समय रहते हरो।
यही जीवन की बेहतरी के लिए मुफीद रहेगा।
कौन यहां अजनबियत से भरी पूरी दुनिया में घुटन सहे ?
क्यों न खुल कर, सब यहां ,तंज़ कसते हुए, जीवन यात्रा पूरी करें ?
२३/०३/२०२५.
55 · Nov 2024
अनुरोध
Joginder Singh Nov 2024
अच्छी सोच का मालिक
कभी-कभी अभद्र भाषा का करता है प्रयोग ,
तो इसकी ख़िलाफत की खातिर ,
आसपास , जहां , तहां,  वहां ,
चारों तरफ़ , कहां-कहां नहीं मचता शोर ।
सच कहूं, लोग  इस शोर को सुनकर नहीं होते बोर ।
आज की ज़िंदगी में यह संकट है घनघोर ।
जनाब ,इस समस्या की बाबत कीजिए विचार विमर्श।

ताकि अच्छी सोच का मालिक
जीवन भर अच्छा ही बना रहे ।
वह जीवन की खुशहाली में योगदान देता रहे ।
यदि आप ऐसा ही चाहते हैं ,जनाब !
तो कभी भूले से भी उसे न दीजिए कभी गालियां।
उसे अपशब्दों, फब्तियों,तानों,
लानत मलामत से कभी भी न नवाजें।
उसे न करें कभी परेशान।
उसके दिलों दिमाग को ठेस पहुंचाना,
उसकी अस्मिता पर प्रश्नचिह्न अंकित करना।
उस  पर इल्ज़ाम लगा कर बेवजह शर्मिंदा करना,
जैसे मन को ठेस लगाने वाले अनचाहे उपहार न दीजिए ।
कभी-कभी उसे भी अपना लाड़ ,दुलार ,प्यार दीजिए ।
55 · Dec 2024
बचाव
Joginder Singh Dec 2024
अवैध संबंध
लत बनकर
जीव को करते हैं
अकाल मृत्यु के लिए बाध्य।

जीव
इसे भली भांति जानता है ,
फिर भी
वह खुद को इन संबंधों के
मकड़जाल में उलझाता है।
असमय
यमदेव को करता है
आमंत्रित।

मरने के बाद
वह माटी होकर भी
शेष जीवन तक ,
मुक्ति होने तक
प्रेत योनि में जाकर
अपनी आत्मा को
भटकाता रहता है।
वह नारकीय
जीवन के लिए
फिर से हो प्रस्तुत!
जन्मने को हो उद्यत!

अवैध संबंध
भले ही पहले पहल
मन के अंदर
भरें आकर्षण।
पर अंततः
इनसे आदमी
मरें असमय,
प्राकृतिक मौत से
कहीं पहले
अकाल मृत्यु का
बनकर शिकार ।
क्यों न वे
अपने भीतर
समय रहते
अपना बचाव करें।

आओ,
हम अवैध संबंध की राह
से बचने का करें प्रयास।
ताकि हम उपहास के
पात्र न बनें।
बल्कि जीवन में
सुख, शांति, संपन्नता की ओर बढ़ें।
क्यों न करें
हम अपना बचाव ?
फिर कैसे नहीं
जीवन नदिया के
मध्य विचरते हुए ,
लहरों से जूझकर
सकुशल पहुंचे,
लक्ष्य और ठौर तक
जीवन की नाव ?
आओ, हम अपना बचाव करें ।
अनचाहे परिणामों और रोगों से
खुद को बचा पाएं ।
संतुलित जीवन जी पाएं ।

१७/०१/२००६.
55 · Dec 2024
भक्ति
Joginder Singh Dec 2024
सुध बुध भूली ,
राम की हो ली ,
मन के भीतर
जब से सुनी ,
झंकार रे !
जीवन में बढ़ गया
अगाध विश्वास रे !
यह जीवन
अपने आप में
अद्भुत प्रभु का
श्रृंगार रे!

भोले इसे संवार रे!!
भक्त में श्रद्धा भरी
अपार  रे!
तुम्हें जाना है
भव सागर के पार
प्रभु आसरे रे!
बन जा अब परम का
दास रे!
काहे को होय
अधीर रे!
निज को अब बस
सुधार रे!
यह जीवन
एक कर्म स्थली है
बाकी सब मायाधारी का
चमत्कार रे!
कुछ कुछ एक व्यापार रे!!
कुछ सार्थक इस वरदान तुल्य जीवन में वरो।
यूं ही लक्ष्य हीन
नौका सा होकर
जीवन धारा में
बहते न  रहो ।
अरे! कभी तो
जीवन की नाव के
खेवैया बनने का प्रयास करो।
तुम बस अपने भीतर
स्वतंत्रता को खोजने की
दृढ़ संकल्प शक्ति भरो।
स्वयं पर भरोसा करो।
तुम स्व से संवाद रचाओ।
निजता का सम्मान करो।
अपने को जागृत करने के निमित्त सक्षम बनाओ।
स्वतंत्रता की अनुभूति
निज पर अंकुश लगाने पर होती है।
अपने जीवन की मूलभूल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
दूसरों पर आश्रित रहने से
यह कभी नहीं प्राप्त  होती है।
स्वतंत्रता की अनुभूति
स्वयं को संतुलित और जागरूक रखने से ही होती है।
वरना मन के भीतर निरंतर
बंधनों से बंधे होने की कसक
परतंत्र होने की प्रतीति शूल बनकर चुभती है।
फिर जीवन धारा अपने को
स्वतंत्र पथ पर कैसे ले जा पाएगी ?
यह क़दम क़दम पर रुकावटों से
जूझती और संघर्ष करती रहेगी।
यह जीवन सिद्धि को कैसे वरेगी ?
जीवन धारा कैसे निर्बाध आगे बढ़ेगी ?
१०/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
'सिगरेट पीना
स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।'
'धूम्रपान से कैंसर होता है।'
इसी तरह की
बहुत सारी जानकारी
हम पढ़ते भर हैं,
उस पर अमल नहीं करते
क्यों कि मृत्यु से पहले
हम डरना नहीं चाहते ।
हम बहादुर बने रहना चाहते हैं ।
हम जीना चाहते हैं !
हम आगे बढ़ना चाहते हैं !!

सिगरेट पीने से पहले ,
सिगरेट पीने के बाद
लोग कतई नहीं सोचते
कि उन्होंने अपनी देह को
एक ऐशट्रे में बदल डाला है।
बहुत से घरों में
बहुत पहले ऐशट्रे
ड्राइंग रूम की टेबल पर
सजा कर रखी जाती थी,
ताकि कोई सिगरेट पीने वाला आए,
तो वह  ऐशट्रे का इस्तेमाल आसानी से कर सके।

हमारे भीतर भी
एक ऐशट्रे पड़ी रहती है
जिसके भीतर
हमारी बहुत सारी मूर्खताओं की राख
पड़ती रहती है
ऐशट्रे के भरने और खाली होने तक।

ऐशट्रे का जीवन
सतत
करता रहता हमें स्तब्ध!
यही स्तब्धता कर देती हमें हतप्रभ!!
अचानक थर थर कंपाने लगती है।

अपने जीवन को ऐशट्रे सरीखा न बनाएं।
वायु मंडल में घर कर चुका प्रदूषण ही पर्याप्त है,
जिससे मानव जीवन ख़तरे में हे।
इसे कोई भी समझना नहीं चाहता।
११/०५/२०२०.
55 · Mar 12
मर्यादा
मनुष्य
जब तक स्वयं को
संयम में
रखता है
मर्यादा बनी रहती है ,
जीवन में
शुचिता
सुगंध बिखेरती रहती है,
संबंध सुखदायक बने रहते हैं
और जैसे ही
मनुष्य
मर्यादा की
लक्ष्मण रेखा को भूला ,
वैसे ही
हुआ उसका अधोपतन !
जीवन का सद्भभाव बिखर गया !
जीवन में दुःख और अभाव का
आगमन हुआ !
आदमी को तुच्छता का बोध हुआ ,
जिजीविषा ने भी घुटने टेक दिए !
समझो आस के दीप भी बुझ गए !
मर्यादाहीन मनुष्य ने अपने कर्म
अनमने होकर करने शुरू किए !
सुख के पुष्प भी धीरे धीरे सूख गए !!
मर्यादा में रहना है
सुख , समृद्धि और संपन्नता से जुड़े रहना !
मर्यादा भंग करना
बन जाता है अक्सर
जीवन को बदरंग करना !
अस्तित्व के सम्मुख
प्रश्नचिह्न अंकित करना !!
मन की शांति हरना !!
१२/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
यह हक़ीक़त है कि
जब तक रोशनी है ,
तब तक परछाई है ।
आज तुम
खुद को रोशनी की जद में पहुंचा कर
परछाई से
जी भरकर लो खेल।
अंधेरे ने
रोशनी को
निगला नहीं कि
सब कुछ समाप्त!
सब कुछ खत्म!
पटाक्षेप !


और
है भी एक हक़ीक़त,
जो इस जीवन रूपी आईने का
भी है सच कि
जब तक अंधेरा है,
तब तक एक्स भी नजर नहीं आएगा।
अंधेरा है तो नींद है,
अंधेरे की हद में
आदमी भले ही
देर तक सो ले ,
अंधेरा छंटा नहीं कि
उसे जागना पड़ता है।

अंधेरा छंटा नहीं ,
समझो सच की रोशनी ने
आज्ञा के अंधेरे को निगला कि
सब कुछ जीवित,
जीवन भी पूर्ववत हुआ
अपनी पूर्व निर्धारित
ढर्रे पर लौटता
होता है प्रतीत।

जीवन  वक्त के संग
बना एक हुड़दंगी सा
आने लगता है नज़र।
वह समय के साथ
अपनी जिंदादिल होने का
रानी लगता है
अहसास,
आदमी को अपना जीवन,
अपना आसपास,
सब कुछ लगने लगता है
ख़ास।
बंधुवर,
आज तुम जीवन का खेल समझ लो।
जीवन समय के साथ-साथ
सच  को आग बढ़ाता जाता है ,
जिससे जीवन धारा की गरिमा
करती रहे यह प्रतीति कि
समय जिसके साथ
एक साथी सा बनकर रहता है,
वह जीवन की गरिमा को
बनाए रख पाता है ,
जीवन की अद्भुत, अनोखी, अनुपम,अतुल छटा को
जीवन यात्रा के क़दम क़दम पर  
अनुभूत कर पाता है ,
समय की लहरों के संग
बहता जाता है ,
अपनी मंजिल को पा जाता है ।

घटतीं ,बढ़तीं,मिटतीं, बनतीं परछाइयां
रोशनी और अंधेरे की उपस्थिति में
पदार्थ के इर्द-गिर्द
उत्पन्न कर एक सम्मोहन
जीवन के भीतर भरकर एक तिलिस्म
क़दम क़दम पर मानव से यह कहती हैं अक्सर ,
तुम सब रहो मिलकर परस्पर
और अब अंततः अपना यह सच जान लो कि
तुम भी एक पदार्थ हो,
इससे कम न अधिक... जीवन पथ के पथिक।
मत हो ,मत हो , यह सुनकर चकित ।
सभी पदार्थ अपने जीवन काल को लेकर रहते भ्रमित
कि वे बने रहेंगे इस धरा पर चिरकाल तक।
परंतु जो चीज बनी है, उसका अंत भी है सुनिश्चित।

२०/०५/२००८.
आजकल
चापलूसी काम नहीं करती।
इस बाबत
आप क्या सोचते हैं ?
ज़रा खुल कर अपनी बात कहिए।
चापलूसी या खुशामद से
जल्दी दाल नहीं गलती।
इससे तो मायूसी हाथ आती है।
आदमी की परेशानी उल्टे बढ़ जाती है।

आज शत्रु के
सिर पर
यदि कोई
छत्र रखना चाहे ,
उसे मान सम्मान की
प्रतीति कराना चाहे
तो क्या यह
संभावना बन
सकती है ?
क्या वह आसानी से
उल्लू बन सकता है ?
कहीं वह तुम्हें ही न छका दे।
चुपके चुपके चोरी चोरी
मिट्टी में न मिला दे।
मन कहता है कि
पहले तो शत्रुता ही न करो,
अगर कोई गलतफहमी की वज़ह से
शत्रु बन ही जाता है
तो सर्वप्रथम उसकी गफलत दूर करने के
भरसक प्रयास करो।
फिर भी बात न बने
तो अपने क़दम पीछे खींच लो।
अपने जीवन को साधना पथ की ओर बढ़ाओ।
सुपात्र को शत्रु से निपटने के लिए
काम पर लगाओ ,
वह किसी भी तरह से
शत्रु से निपट लेगा।
साम ,दाम , दण्ड, भेद से
दुश्मन को अपने पाले में कर ही लेगा।
सुपात्र को सुपारी देने से
यदि कार्य होता है सिद्ध
तो सुपारी दे ही देनी चाहिए।
बस उसे युक्तिपूर्वक काम करने की
हिदायत दे दी जानी चाहिए,
ताकि लाठी भी न टूटे
और काम भी हो जाए।
०८/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अर्से के बाद
मिला एक दोस्त
पूछ बैठा मेरा हाल-चाल!


इससे पहले कि
कोई माकूल जवाब देता,
दोस्त कह बैठा,
लगता है,
सेहत तुम्हारी का
है बुरा हाल।

मैंने उम्र के सिर
चुपके से ठीकरा फोड़ा !
पर , भीतर पैदा हो गया एक कीड़ा !
जो भीतर ही भीतर
खाए जा रहा है।


अब मैं बोलता हूं थोड़ा ,
ज्यादा बोला तो बरसाऊंगा कोड़ा ,
अपने पर और अपनों पर ,
मन में रहते सपनों पर ,
कोई सच बोल कर
कतर  देता है पर ,इस कदर ,
भटकता फिरता हूं  होकर दर-बदर ।

अब तो मुझे
दोस्तों तक से
लगने लगा है डर ,
कहना चाहता हूं
ज़माने भर की हवाओं से
दे दो सबको यह पैग़ाम ,यह ख़बर।
मिलने जरूर आएं,
पर भूल कर भी
कह न दें कोई कड़वा सच
कि लगे काट दिए हैं किसी ने पर ,
अब प्रवास भरनी हो जाएगी मुश्किल।

वे खुशी से आएं,
जीवन में हौसला और
हिम्मत भरकर जाएं।
दिल में कुछ करने की
उमंग तरंग जगाएं ।
Joginder Singh Dec 2024
तुमने बहुत दफा
बहुत से कुत्तों को
दफा करने की ग़र्ज से
उन पर परिस्थितियों वश
पत्थर फैंके होंगे।
और वे भी
परिस्थितियों वश
खूब चीखे चिल्लाए होंगे।

पर
आज
यह न समझना कि
तुम्हारी
दुत्कार फटकार
मुझे भागने को
बाध्य करेगी।
अलबेला श्वान हूं ,
भले ही...  इंसानी निर्दयता से परेशान हूं।
अपनी मर्ज़ी का मालिक हूं ।
अपने रंग ढंग से जीने का आदी हूं ।
मैं , न कि कोई
ज़ुल्म ओ सितम का सताया
कोई मजलूम या अपराधी हूं!
कुत्ता हूं ,
ज्यादा घुड़कियां दीं
तो काट खाऊंगा।
तुम्हें ख़ास से आम आदमी
बना जाऊंगा।
जानवर बेशक हूं ,
पर कोई भेदभाव नहीं करता।
कोई छेड़े तो सही ,
तुरन्त काट खाता हूं।
फिर तो कभी कभी
खूब मार खाता हूं!
पर अपनी फितरत
कहां छोड़ पाया हूं ।
कभी कभी ‌तो
अपने बदले की भावना की
वज़ह से मारा भी जाता हूं ,
अपना वजूद गंवाता हूं।
आदमी के हाथों मारा जाता हूं।

मैं सरेआम
अपने समस्त काम निधड़क करता हूं ,
खाना पीना, मूतना और बहुत कुछ !
पर मेरी वफादारी के आगे
तुम्हारे समस्त क्रिया कलाप तुच्छ !!


मैं / यह जो तुम्हें
पूंछ हिलाता दिखाई दे रहा हूं ,
यह सब मैंने मनुष्यों के साहचर्य में
रहते रहते ही सीखा है !
आप जैसे मनुष्य
स्वार्थ पूर्ति की खातिर
कुछ भी कर सकते हैं ,
यहां तक कि
अपने प्रियजनों को भी
अपने जीवन से बेदखल कर सकते हैं !

मैं श्वान हूं , इंसान नहीं
मुझे दुत्कारो मत ,
वरना आ सकती कभी भी शामत।
गुर्राहट करते हुए आत्म रक्षा करने का
प्रकृति प्रदत्त वरदान मिला है मुझे।
गुर्रा कर स्वयं को बचाना ,
साथ ही मतवातर पूंछ हिलाना ,
और अड़ना, लड़ना, भिड़ना,
सब कुछ भली भांति जानता हूं,
और इस पर अमल भी करता हूं ।

पर कभी कभी
जब कोई
अड़ियल , कडियल , मरियल , सड़ियल आदमी
मुसीबत बनने की चुनौती देने
ढीठपन
पर उतर आए
तो क्यों न उसे
अपने दांतों से
मज़ा चखाया जाए !
अपने भीतर की ढेर सारी कुढ़न
और गुस्से को भड़का कर
देर देर तक, रह रह कर
गुर्राहट करते  करते चुनौती दी जाए ।
आदमी को
भीतर  तक घबराहट भरने में सक्षम
कोई कर्कश स्वर-व्यंजन की ध्वनियों से तैयार
गीत संगीत रचा और सुनाया जाए।
ऐसा कभी कभी
श्वान सभी से कहना चाहता है।

क्यों नहीं ऐसी विषम परिस्थितियों को
उत्पन्न होने देने से बचा जाए ?
अपने जीवन के भीतर करुणा व दया भाव को भरा जाए।

२०/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
उस्ताद जी,
माना कि आप अपने काम में व्यस्त रहते हो,
खूब मेहनत करते हो,
जीवन में मस्त रहते हो।
पर कभी कभी तो
अपने कस्टमर की
जली कटी सुनते हो।
आप कारसाज हो,
बड़ी बेकरारी से काम निपटाते हो,
काम बिगड़ जाने पर
सिर धुनते हो, पछताते हो।

ऐसा क्यों?
बड़े जल्दबाज हो।
क्षमा करना जी ।
मेरे उस्ताद हो।
मुआफ करना , चेला करने चला, गुस्ताखी जी।
अब नहीं देखी जाती,खाना  खराबी जी।
काम के दौरान आप बने न शराबी जी।
अब अपनी बात कहता हूं।
दिन रात गाली गलौज सुनता हूं।
कभी कभी तो बिना गलती किए पिटता हूं।
आप के साथ साथ मैं भी सिर धुनता हूं।
अंदर ही अंदर खुद को भुनता हूं।


सुनिए उस्ताद, कभी कभी खाद पानी देने में कंजूसी न करें,
वरना चेला...हाथ से गया समझो ,जी ।
कौन सुने ? ‌‌
रोज की खिच खिच,चील,पों जी।
आप के मेहरबान ने...आफर दिया है जी।

समय कम है उस्ताद
अब जलेबी की तरह
साफ़ साफ़ सीधी बात जी।


जल्दबाजी में न लिया करें
कोई फ़ैसला।
जो कर दे
जीभ का स्वाद कसैला।

हरदम  चेले चपटे  के नट बोल्ट न कसें।
वो भी इन्सान है,,....बेशक कांगड़ी पहलवान है।

सुनो, उस्ताद...
जल्दबाजी काम बिगाड़े
इससे तो जीती बाजी भी हार में बदल जाती है जी।
विजयोन्माद और खुमारी तक उतर जाती है।
उस्ताद साहब,
सौ बातों की एक बात...
जल्दबाजी होवे है अंधी दौड़ जी।
यदि धीमी शुरुआत कर ली जाए,
तो आदमी जीत लिया करता, हार के कगार पर पहुंची बाजी...!

आपका अपना बेटा
भौंदूंमल।
Joginder Singh Nov 2024
शुक्र है
हम सबके सिर पर
संविधान की छतरी है।
हमें विरासत में मिली
गणतंत्र की गरिमा है।
अन्यथा देखिए और समझिए।
इस देश में
आदमी  की अस्मिता
टोपी धारी के इशारे पर
कब-कब  नहीं  बिखरी  है ?



शुक्र है
हम सबके अस्तित्व पर
तानी गई संविधान की छतरी है ,
वरना अधिकार के नाम पर
बहुत बार
नकटों ने
अपने  लटके-झटकों से
आदमी की नाक कतरी है ।



शुक्र है
इस बार भी नाक बची रह गई ,
संविधान की कृपा से
देश की अस्मिता
इस वर्ष भी बची रह गई ।


मैं संकल्प करता हूं कि
इस गणतंत्र दिवस से
अगले गणतंत्र दिवस तक,
यही नहीं स्वतंत्रता दिवस से
अगले साल स्वतंत्रता दिवस पर,
हर बार देश और जनता से किया गया वायदा
दोहराता रहूंगा, अपने आप को यह याद दिलाता रहूंगा कि
देश तभी बचा रहेगा, जब सभी नागरिक कर्मठ बनेंगे।

मैं अपने साथियों के साथ
देशभर के नागरिकों को
संविधान का अध्ययन करने
और उन और उसके अनुसार अपना जीवन यापन करने
के लिए पुरज़ोर अपील करता रहूंगा।
समय-समय पर उनमें साहस भरता रहूंगा।
स्वयं को और अपनी मित्र मंडली को
विचार संपन्न बनाता रहूंगा।


देश विदेश में घटित हलचलों को
संवैधानिक दृष्टि से पढ़ते हुए
अपने चिंतन का विषय बनाऊंगा।
हर एक संकट के दौर में
खुद को संविधान की छतरी के नीचे बैठा पाऊंगा।

मैं
संविधान को
गीता सदृश पढ़ता रहूंगा,
देशकाल ,हालात अनुसार
संविधान की समीक्षा मैं करता रहूंगा ,
मां-बाप और समाज की
नज़रों में
शर्मिंदा होने से बचता रहूंगा ।


मैं हमेशा संविधान की छतरी तले रहूंगा।
हर वर्ष 26 जनवरी को
संविधान निर्माताओं की देन को याद करूंगा ।
संवैधानिक मूल्यों का पालन कर आगे बढूंगा।

२३/०१/२०११.
जब पहले पहल
नौकरी लगी थी
तब तनख्वाह कम थी
पर बरकत ज़्यादा थी।
अब आमदनी भी
पहले की निस्बत ज़्यादा,
पर बरकत बहुत ही कम!
कल थरमस खरीदी,
दाम दिए हजार रुपए से
थोड़े से कम !
पहली नौकरी में
महीना भर काम करने के
उपरांत मिले थे
पगार में लगभग नौ सौ रुपए।
मैं बहुत खुश था !
कल मैं सन्न रह गया था !
निस्संदेह
महंगाई के साथ साथ
संपन्नता भी बढ़ी है।
पर इस नक चढ़ी
महंगाई ने
समय बीतते बीतते
अपने तेवर
दिखाए हैं!
कम आय वर्ग को
ख़ून के आँसू रुलाए हैं !
बहुत से मेहनतकश
बेरहम महंगाई ने
जी भर कर सताए हैं !!
आओ कुछ ऐसा करें!
सभी इस बढ़ती महंगाई का सामना
अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करते हुए करें।
सब ख़ुशी ख़ुशी नौकरी और काम धंधा करें,
वे इस बढ़ती महंगाई को विकास का नतीजा समझें ,
इससे कतई न डरें !
वे महंगाई के साथ साथ
जीवन संघर्ष में जुटे रहें !!
०३/०३/२०२५.
वह इस भरे पूरे
संसार में
दुनियावी गोरखधंधे सहित
अपने वजूद के
अहसास के बावजूद
कभी कभी
खुद को
निपट अकेलेपन से
संघर्ष करते ,
जूझते हुए
पाता है ,
पर कुछ नहीं कर
पाता है,
जल्दी ही
थक जाता है।
वह ढूंढ रहा है
अर्से से सुख
पर...
उसकी चेतना से
निरन्तर दुःख लिपटते जा रहे हैं ,
उसे दीमक बनकर
चट करते जा रहे हैं।
जिन्हें वह अपना समझता है,
वे भी उससे मुख मोड़ते जा रहे हैं।
काश! उसे मिल सके
जीवन की भटकन के दौर में
सहानुभूति का कोई ओर छौर।
मिल सके उसे कभी
प्यार की खुशबू
ताकि मिट सके
उसके अपने किरदार के भीतर
व्यापी हुई बदबू और सड़ांध!
वह पगलाए सांड सा होकर
भटकने से बचना चाहता है ,
जीवन में दिशाहीन हो चुके
भटकाव से छुटकारा चाहता है।

कभो कभी
वह इस दुनियावी झंझटों से
उकता कर
एकदम रसविहीन हो जाता है ,
अकेला रह जाता है,
वह दुनिया के ताम झाम से ऊब कर
दुनिया भर की वासनाओं में डूबकर
घर वापसी करना चाहता है,
पर उस समझ नहीं आता है,
क्या करे ?
और कहां जाए ?
वह दुनिया के मेले को
एक झमेला समझता आया है।
फलत:
वह भीड़ से दूर
रहने में
जीवन का सुख ढूंढ़ रहा है,
अपना मूल भूल गया है।
वह अपने अनुभव से
उत्पन्न गीत
अकेले गाता आया है,
अपनी पीड़ा दूसरों तक नहीं
पहुँचा पाया है।
सच तो यह है कि
वह आज तक
खुद को व्यक्त नहीं कर पाया है।
यहाँ तक कि वह स्वयं को समझ नहीं पाया है।
खुद को जानने की कोशिशों को
मतवातर जारी रखने के बावजूद
निराश होता आया है।
वह नहीं जान पाया अभी तक
आखिर वह चाहता क्या है?
उसका होने का प्रयोजन क्या है?
निपट अकेला मानुष
कभी कभी
किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है,
वह खुद को असंमजस में पाता है।
अपनी बाबत कोई निर्णय नहीं कर पाता है।
सदैव उधेड़ बुन में लगा रहता है।
१६/०३/२०२५.
( १६/१२/२०१६).
कर्म चक्र
समय से पहले
कभी भी
आगे बढ़ने की
प्रेरणा नहीं देता।
आदमी
कितना ही
ज़ोर लगा लें ,
मन को समझा लें।
मन है कि यह
साधे नहीं सधता।
यह अड़ियल
बना रहता है।
अकारण
तना रहता है ,
खूब नाच नचाता है।

समय आने पर
यह भटकना
छोड़ देता है ,
अटकना और मचलना
रोक कर
यह स्वयं को
अभिव्यक्त करने की
पुरजोर कोशिश करता है ,
अपने भीतर कशिश भरता है।
ठीक इसी क्षण
आदमी के
प्रारब्ध का शुभारंभ होता है।
हर रुका हुआ काम
सम्पन्न होने लगता है ,
जिससे तन मन में
प्रसन्नता भरती जाती है।
यह आगे बढ़ने के
अवसरों को ढंग से
बटोर पाती है।
यह सब कुछ न केवल
आदमी को सतत्
कामयाबी की अनुभूति कराता है ,
बल्कि सुख समृद्धि और सम्पन्नता के
जीवन में आगमन से
व्यक्ति जीवन दिशा  को
भी बदल जाता है।
यही प्रारब्ध का शुभारंभ है ,
जहां सदैव रहते आए
उत्साह ,जोश और उमंग  की तरंगें हैं।
इन्हीं के बीच सुन पड़ती
जीवन की अंतर्ध्वनियां हैं।
३०/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जारी,जारी,जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीतें हैं,इस जहान की।
यहां
ईमानदार
भूखे मरते हैं,
दिन रात
मतवातर
डरते हैं।
अजब-गजब
रवायत है
इस जहान की।
जारी ,जारी ,जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीते हैं ,इस जहान की।
यहां
बेईमान
राज करते हैं,
दिन रात
जनता के रखवाले
रक्षा करते हैं ,
जबकि
शरारती डराते हैं ,  
और
वे उत्पात मचाने से पीछे नहीं हटते हैं ।
जारी, जारी ,जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीते हैं, इस जहान की।
अजब
सियासत है ,
इस हिरासत की ।
यहां
कैदी
आज़ादी भोगते हैं
और
दिन रात
गुलामों पर बेझिझक भौंकते हैं ।
जारी ,जारी, जारी ,जारी,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीते हैं , इस जहान की।
सभी
यहां खुशी-खुशी
देश की खातिर
लड़ते हैं ।
अजब
प्रीत है
इस देश की।
यहां
सभी
अवाम की खातिर
संघर्ष करते हैं।
जारी ,जारी, जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीतें हैं , इस जहान की।
अजब
अजाब है
इस अजनबियत का।
यहां
सब लोग
नाटक करते हैं।
दिन रात
लगातार
नौटंकी करते हैं।
अजब
नौटंकी जारी है,
पता नहीं
अब किसकी बारी है।
किसने की रंग मंच पर
आगमन की तैयारी है ?
लगता है  
अब हम सब की बारी है।
क्या हम ने कर ली
इसकी खातिर तैयारी है ?
जारी ,जारी ,जारी ,जारी , जारी नौटंकी जारी है।
अजब ,अजब, अजब सी रीतें हैं इस जहान की।
अजब
नौटंकी जारी है।
लगता है ,
अब हम सब की बारी है।
55 · Dec 2024
हवस
Joginder Singh Dec 2024
नाभि दर्शना साड़ी पहने
कोई स्त्री देखकर ,
पुरुष का सभ्य होने का पाखंड
कभी कभी खंडित हो जाता है ।
उसकी लोलुपता
उसकी चेतना पर पड़ जाती है भारी।
यह एक वहम भर है या हवस भरी सामाजिक बीमारी ?
इसका फैसला उसे खुद करना है।
उसे कभी तो भटकन के बाद शुचिता को वरना है।
१६/१२/२०२४.
मेरे घर हरेक सोमवार
जो अख़बार
आता है ,
वह
सकारात्मकता का
सन्देश मन तक
पहुंचाता है।
मुझे अक्सर
इस अख़बार का
इंतज़ार
रहता है ,
बेशक दिन
कोई सा भी रहा हो ,
सकारात्मकता वाला सोनवार
या फिर नकारात्मकता वाली
ख़बरों से भरे अन्य दिन !
मुझे अब
नकारात्मकता में भी
सकारात्मकता  
खोज लेने की विधि
आ गई है ,
यह मन को
भा गई है ।
वज़ह  
सोमवार का
सकारात्मक सच
सप्ताह के
बाकी दिनों में भी
मुझे उर्जित रखता है !
रविवार आने तक
मुझे सोमवार के सकारात्मकता भरपूर
अख़बार पढ़ने का
रहता है इंतज़ार !
सच कहूँ ,
सकारात्मकता में
निहित है
जीवन की रचनात्मकता का राज़ !
अच्छा रहे
सातों दिन सकारात्मकता से
भरपूर खबरें छपें !
नकारात्मकता वाली खबरें
अति ज़रूरी होने पर ही छपें !!
नकारात्मकता
यदि हद से ज्यादा
हम पर हावी हो जाती है ,
तो ज़िंदगी जीना दुरूह हो जाता है ,
समाज में अराजकता फैल  ही जाती है।
अच्छा है कि सब सकारात्मकता को अपनाएं !
नकारात्मकता को जड़ से लगातार खारिज़ करते जाएं !
ताकि सभी के मन और मस्तिष्क जीवन बगिया में उज्ज्वल फूल खिलाएं !
२४/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जनाब! बुरा मत मानिएगा।
मारने की ग़र्ज से छतरी नहीं तानिएगा।

बुरा मानने का दौर चला गया ।
पता नहीं ,यह शोर कब थमेगा?

बुरा! बुरा !! बुरा !!!
आजकल हो गया है ।
हमारी सभ्यता का धुरा।

बुरा देखते-देखते
चुप रह जाने की आदत ने
हमें जीती जागती बुराई को
अनदेखा करना सिखा दिया है!
हमें बुराई का पुतला बना दिया है!!

पता नहीं कब राम आएंगे ?
अपने संगी साथियों के संग
बुराई का दहन करने का बीड़ा उठाएंगे।
भारत को राम राज्य के समान बनाएंगे ।
पहलगाम के
नृशंस हत्याकांड के बाद
आज के रविवार
पी. एम. सर
अपनी मन की बात को
सुरक्षा के संदर्भ में
आगे बढ़ाएंगे।
देखें , उन द्वारा व्यक्त विचार
घायल राष्ट्र को
कितना मरहम लगाते हैं।
वे देश भक्ति के जज्बात को
किस तरह भविष्य की रणनीति से जोड़ेंगे।
वे राष्ट्र की अस्मिता को
किस दृष्टिकोण से
देश के नागरिकों के सम्मुख रखेंगे।
देश अब भी किसी पड़ोसी देश का अहित
नहीं करना चाहता।
वह तो अपनी सरहदों को
सुरक्षित देखना चाहता।
वह देश दुनिया में अमन चैन का परचम
लहराते देखना चाहता ।
हाँ, देश यह जरूर चाहेगा कि
राष्ट्र के आंतरिक शत्रुओं पर
लगाम कसी जाए
ताकि देश भर में
आंतरिक एकता को दृढ़ किया जा सके,
सुख , समृद्धि और संपन्नता भरपूर
राष्ट्र को बनाया जा सके।
उसका हरेक नागरिक
उसकी आन बान शान को बढ़ा सके।
मन की बात में निहित अंतर्ध्वनि को सब सुनें ,
यहां तक कि पड़ोसी देशों के नागरिक भी ,
ताकि सभी देशों के नागरिक
हालात के अनुरूप खुद को ढाल सकें।
वे अपने अपने राष्ट्र की ढाल बनने में सक्षम हो सकें।
देश में अमन शांति कायम रहें ।
बेशक सब अपने अपने स्तर पर
सजग और चौकन्ने बने रहें।
२७/०४/२०२५.
54 · Nov 2024
नायकत्व
Joginder Singh Nov 2024
नाहक
नायक बनने की
पकड़ ली थी ज़िद।
अब
उतार चढ़ाव की तरंगों पर
रहा हूं चढ़ और उतर
टूटती जाती है
अपने होश खोती जाती है
अहम् से
जन्मी अकड़।

निरंतर
रहा हूं तड़प
निज पर से
ढीली होती जा रही है
पकड़।

एकदम
बिखरे खाद्यान्न सा होकर...
जितना भी
बिखराव को समेटने का
करता हूं प्रयास,
भीतर बढ़ती जाती
भूख प्यास!
अंतस में सुनाई देता
काल का अट्टहास!!
  १३/१०/२००६.
Joginder Singh Dec 2024
यदि
बनना चाहते तुम ,
सिद्ध करना चाहते तुम
पढ़ें लिखों की भीड़ में
स्वयं को प्रबुद्ध
तो रखिए याद
सदैव यह सच ,
यह याद रखना बेहद जरूरी है
कि अंत:करण बना रहे सदैव शुद्ध ।
अन्यथा व्यापा रहेगा भीतर तम ,
और तुम
अंत:तृष्णाओं के मकड़जाल में फंसकर
सिसकते, सिसकियां भरते रहे जाओगे ।
तुम्हारे भीतर समाया मानव
निरंतर दानव बनता हुआ
गुम होता चला जाएगा ,
वह कभी अपनी जड़ों को खोज नहीं पाएगा ।

वह
लापता होने की हद तक
खुद के टूटने की ,
पहचान के रूठने की
प्रतीति होने की बेचैनी व जड़ता से
पैदा होने के दंश झेलने तक
सतत् एक पीड़ा को अपनाते हुए
जीवन की आपाधापी में खोता चला जाएगा।
वह कभी अपनी प्रबुद्धता को प्रकट नहीं कर पाएगा।
फिर वह कैसे अपने से संतुष्ट रह पाएगा?
अतः प्रबुद्ध होने के लिए
अपने भीतर की
यात्रा करने में सक्षम होना
बेहद जरूरी है।
यह कोई मज़बूरी नहीं है ।
०३/१०/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
समय कभी कभी
उवाचता है अपनी
गहरी पैठी अनुभव जनित
अनुभूति को
अभिव्यक्ति देता हुआ,
" अगर सभी चेतना प्राप्त
अपने  भीतर गहरे उतर
निज की खूबियों को जान पाएं,
अपनी सीमाएं पहचान जाएं
तो वे सभी एकजुट होकर
व्यवस्था में बदलाव ले आएं।"

"खुद को समझ पाना,
फिर जन जन की समझ बढ़ाना,
कर सकता है समाजोपयोगी परिवर्तन।
अन्यथा बने रहेंगे सब, लकीर के फ़कीर।
जस के तस,जो न होंगे कभी, टस से मस।
जड़ से यथास्थिति के बने शिकार,
नहीं होंगे जो सहजता से, परिवर्तित।"
समय मतवातर कह रहा,
" देखो,समझो, काल का पहिया
उन्हें किस दिशा की ओर बढ़ा रहा।
मनुष्य सतत संघर्षरत रहकर
जीवन में उतार चढ़ाव की लहरों में बहकर
पहुँचता है मंज़िल पर, लक्ष्य सिद्धि को साध कर।"

" युगांतरकारी उथल पुथल के दौर में
परिवर्तन की भोर होने तक,बने रहो शांत
वरना अशांति का दलदल, तुम्हें लीलने को है तैयार।
यदि तुम इस अव्यवस्था में धंसते जाओगे,
तो सदैव अपने भीतर
एक त्रिशंकु व्यथा को
पैर पसारते पाओगे।
फिर कभी नहीं
दुष्चक्रों के मकड़जाल से
निकल पाओगे।
तुम तो बस , खुद को
हताश, निराश,थका, हारा, पाओगे।"
  १४/०५/२०२०.
मन की गति बड़ी तीव्र है !
इसे समझना भी विचित्र है!
मन का अधिवास है कहां ?
शायद तन के किसी कोने में!
या फिर स्वयं के अवचेतन में!
मन इधर उधर भटकता है !
पर कभी कभी यह अटकता है!!
यह मन , मस्तिष्क में वास करता है।
आदमी सतत इस पर काबू पाने के
निमित्त प्रयास करता रहता है।
यदि एक बार यह नियंत्रित हो जाए ,
तो यह आदमी के भीतर बदलाव लाता है।
आदमी बदला लेना तक भूल जाता है।
उसके भीतर बाहर ठहराव जो आ जाता है।
यह जीव को मंत्र मुग्ध करता हुआ
जीवन के प्रति अगाध विश्वास जगाता है।
यह जीवंतता की अनुभूति बन कर
मतवातर जीवन में उजास भरता जाता है
आदमी अपने मन पर नियंत्रण करने पर
मनस्वी और मस्तमौला बन जाता है।
वह हर पल एक तपस्वी सा आता है नज़र,
उसका जीवन  और दृष्टिकोण
आमूल चूल परिवर्तित होकर
नितांत जड़ता को चेतनता में बदल देता है।
वह जीवन में उत्तरोत्तर सहिष्णु बनता चला जाता है।
मन हर पल मग्न रहता है।
वह जीवन की संवेदना और सार्थकता का संस्पर्श करता है।
मन जीवन के अनुभवों और अनुभूतियों से जुड़कर
सदैव
क्रियाशील रहता है।
सक्रिय जीवन ही मन को
स्वस्थ और निर्मल बनाता है।
इस के लिए
अपरिहार्य है कि
मन रहे हर पल कार्यरत और मग्न ,
यह एक खुली किताब होकर
सब को सहज ही शिखर की और ले जाए।
इस दिशा में
आदमी कितना बढ़ पाता है ?
यह मन के ऊपर
स्व के नियंत्रण पर निर्भर करता है ,
वरना निष्क्रियता से मन बेकाबू होकर
जीवन की संभावना तक को
तहस नहस कर देता है।
कभी कभी मन की तीव्र गति
अनियंत्रित होकर जीवन में लाती है बिखराव।
जो जीवन में तनाव की बन जाती है वज़ह ,
फलस्वरूप जीवन में व्याप्त जाती है कलह और क्लेश।
इस मनःस्थिति से बचना है तो मन को रखें हर पल मग्न।


०६/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
देह से नेह है मुझे
यह चाहे गाना अब  देह का राग
भीतर भर भर कर  
संवेदना
करना चाहे यह संस्पर्श अनुभूतियों के
समंदर का ।
हाल बताना चाहे मन के अंदर उठी
लहरों का ।
यह सच है कि
इससे
नेह है मुझे
पर मैं इसे स्वस्थ
नहीं रख पाया हूँ।
जिंदगी में भटकता आया हूँ।

जब यह
अपनी पीड़ा
नहीं सह पाती है तो बीमार
हो जाती है ,
तब मेरे भीतर चिंता
और उदासी भर जाती है।

इससे पहले कि
यह लाइलाज़ और
पूर्ण रूपेण से हो
रुग्ण
मुझे हर संभावित करना चाहिए
इसे स्वस्थ रखने के प्रयास।
पूरी तरह से
इसके साथ रचाना चाहिए
संवाद।
इससे खुलकर करनी चाहिए
बात।
इसकी देह में भरना चाहिए
आकर्षण।
आलस्य त्याग कर
नियमित रूप से
करना चाहिए
व्यायाम।
ताकि यह अकाल मृत्यु से
सके बच।
यह खोज सके
देहाकर्षण के आयाम।
दे सके अशांत, आक्रांत,
आत्म को भीतर तक ,
गहरे शांत करने
के निमित्त
दीर्घ चुम्बन!
हों सकें समाप्त
इसके भीतर की सुप्त
इच्छाओं से निर्मित
रह रह कर होने वाले
कम्पन
और निखर सके तनाव रहित होकर
देह के भीतर के वासी का मन।

देह की राग गाने की इच्छा की
पूर्ति भी हो जाए,
इसके साथ साथ
भीतर इसके उमंग तरंग भर जाए ।

आज ज़रूरी है
यह
तन और मन की जुगलबंदी से
राग,ताल, लय के संग
जीवन के राग गाए,
ज़रा सा भी न झिझके
अपना अंतर्मन खोल खोल भीतर इकठ्ठा हुआ
सारा तनाव बहा दे ।
करे यह दिल से
नर्तन!
छूम छन छन...छिन्न...छन्ना छन ...छ।...न...!!

देह से नेह है मुझे
पर...मैं...
इसे मुक्त नहीं कर पाया हूँ ।
इससे मुक्त नहीं हो पाया हूँ।
शायद
देह का राग
मुझ में
भर दे विराग ,
जगा दे
दिलोदिमाग को
रोशन करता हुआ
कोई चिराग़।
और इस की रोशनी में
देह अपने समस्त नेह के साथ
गा सके देह का सम्मोहक
तन और मन के भीतर से प्रतिध्वनित
रागिनी के मनमोहक रंग ढंग से
सज्जित
मनोरम राग
और जो मिटाए
देह के समस्त विषाद ।
कर सके तन और मन से संवाद।

१७/०१/२००६.
आदमी अपने अंतर्विरोधों से लड़े।
वह कभी तो
इनके खिलाफ़ खड़े होने का साहस जुटाए,
अन्यथा उसका जीवनाधार धीरे धीरे दरकता जाए।
इसे समझकर,
विषम परिस्थितियों में खुद को परखकर
जीवन के संघर्षों में जुटा जाता है,
हारी हुई बाज़ी को पलटा जाता है।
इतनी सी बात
यदि किसी की समझ में न आए,
तो क्या किया जा सकता है ?
ऐसे आदमी की बुद्धि पर तरस आता है।
जब आदमी को हार के बाद हार मिलती रहे,
तो उसे लगातार डराने लगता सन्नाटा है।
इस समय लग सकता है कि
कोई जीवन की राह में रुकावट बन आन खड़ा है,
जिसने यकायक स्तंभित करने वाला
झन्नाटेदार चांटा जड़ा है !!
गाल और अंतर्मन तक लाल हुआ है !!
मन के भीतर बवाल मचा है !!

आदमी को चाहिए कि
अब तो वह नैतिक साहस के साथ
जीवन में जूझने के निमित्त खड़ा हो
ताकि जीवन में पनप रहे
अंतर्विरोधों का सामना
वह कभी तो सतत् परिश्रम करते हुए करे,
कहीं यह न हो कि वह जीवन पर्यंत डरता रहे,
जीवन में कभी कुछ साहसिक और सार्थक न कर सके।
ऐसा मन को शांत रखना सीख कर सम्भव है।
इसकी खातिर शान्त चित्त होना अपरिहार्य है,
ताकि आदमी बेरोक टोक लक्ष्य सिद्धि कर सके,
वह जीवन की विषमताओं से मतवातर लड़ सके,
जीवन धारा के संग संघर्ष रत रहकर आगे बढ़ सके।
20/03/2025.
मुझे
वह हमेशा...
जो कोठे में बंदी जीवन
जी रही है
और
जो दिन में
अनगिनत बार बिकती है,
हर बार बिकने के साथ मरती है,
पल प्रतिपल सिसकती है
फिर भी
लोग कहते हैं
उसे इंगित कर ,
"मनमर्ज़ियां करती है।"
वह मुझे हमेशा से
अच्छी और सच्ची लगती है।
दुनिया बेवजह उस पर ताने कसती है।
जिसे नीचा दिखाने के लिए,
जिसे प्रताड़ित करने के लिए
दुनिया भर ने साज़िशों  को रचा है।
इस मंडी की निर्मिति की है,
जिसमें आदमजात की
सूरत और सीरत बसी है।

वह क्या कभी
किसी क्षण
भावावेगों में बहकर
सोचती है कि
मैं किस घड़ी
उस पत्थर से उल्फत कर बैठी ?
जिसने धोखे से बाज़ार दिया।
और इसके साथ साथ ही
सौगात में
पल पल , तिल तिल कर
भीतर ही भीतर
रिसने और सिसकने की
सज़ा दे डाली।
वह निर्मोही जीवन में
सुख भोगता होगा
और मैं उल्फत में कैद!
एक दुःख, पीड़ा, कष्ट और अजाब झेलती
उम्र कैदी बनी
रही हूं जीवन के
पिंजरे मे पड़ी हुई पछता।

कितना रीत चुकी हूं ,
इसका कोई हिसाब नहीं।
बहुतों के लिए आकर्षण रही हूं ,
भूली-बिसरी याद बनी हूं।
यह सोलह आने सच है कि
पल पल घुट घुट कर जीती हूं ,
दुनिया के लिए एकदम गई बीती हूं।

मेरा चाहने वाला ,
साथ ही बहकाने वाला
क्या कभी अपनी करनी पर
शर्मिंदा होता होगा ?
उसका भीतर
गुनाह का भार
समेटे व्यग्र और रोता होगा ?

शायद नहीं !
फिर वह ही क्यों
बनती रही है शिकार
मर्द के दंभ और दर्प की !

यह भी एक घिनौना सच है कि
आदिकाल से यह सिलसिला
चलता आया है।
जिसने बहुतों को भरमाया है
और कइयों को भटकाया है।
पता नहीं इस पर
कभी रोक लगेगी भी कि नहीं ?
यह सब सभ्य दुनिया के
अस्तित्व को झिंझोड़ पाएगा भी कि नहीं ?
उसके अंदर संवेदनशीलता
जगा भी पाएगा कि नहीं ?
यह जुल्मों सितम का कहर ढाता रहेगा।
सब कुछ को पत्थर बनाता रहेगा।
54 · Mar 3
विदूषक
आदमी
कभी कभी
अपनी किसी
आंतरिक कमी की
वज़ह से विदूषक जैसा
व्यवहार न चाहकर भी करता है ,
भले ही वह बाद में पछताता रहे अर्से तक।
भय और भयावह अंजाम की दस्तक मन में बनी रहे।

विदूषक भले ही
हमें पहले पहल मूर्ख लगे
पर असल में वह इतना समझदार
और चौकन्ना होता है कि उसे डराया न जा सके ,
वह हरदम रहता है सतर्क ,अपने समस्त तर्क बल के साथ।
विदूषक सदैव तर्क के साथ क़दम रखता है ,
बेशक उसके तर्क आप को हँसाने और गुदगुदाने वाले लगें।

आओ हम विदूषक की मनःस्थिति को समझें।
उसकी भाव भंगिमाओं का भरपूर आनंद लेते हुए बढ़ें।
कभी न कभी आदमी एक विदूषक सरीखा लगने लगता है।
पर वह सदैव सधे कदमों से
जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश करता है ,
यही सब उसके व्यक्तित्व के भीतर कशिश भरता है।
उसे निरर्थकता में भी सार्थकता खोजने का हुनर आता है!
तभी वह बड़ी तन्मयता से
तनाव और कुंठा ग्रस्त व्यक्ति के भीतर
हंसी और गुदगुदाहट भर पाता है।
ऐसा करके वह आदमी को तनावरहित कर जाता है !
यही नहीं वह खुद को भी उपचारित कर पाता है !!
०३/०३/२०२५.
किसे नहीं जीवन
अच्छा लगेगा ?
जब जीवन के प्रति
मतवातर आकर्षण जगेगा।
मृत्यंजय क्यों कभी कभी
मौत के आगोश में चला जाता है?
जिसका नाम मृत्यु को जीतने वाला हो ,
वह क्यों जीवन के संघर्षों से हार जाता है?
अभी अभी पढ़ी है एक ख़बर कि
मृत्युंजय ने फंदा लगा लिया।
वह जीवन से कुछ निराश और हताश था।
आओ हम करें प्रयास
कि सब पल प्रति पल
बनाए रखें जीवन में
सकारात्मक घटनाक्रम की आस
ताकि आसपास हो सके उजास,
भीतर भी सुख ,समृद्धि और संपन्नता का
सतत होता रहे अहसास।
अचानक शिवशक्ति को
अपने नाम मृत्यंजय में समाहित
करने वाला जीवात्मा
असमय जीवन में न जाए हार।
वह जीवन को अपनी उपस्थिति से
आह्लादित करने में सक्षम बना रहे।
वह अचानक सभी को
शोकाकुल न कर सके।
वह जीवन को हंसते हंसते वर सके।
२०/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
निठल्ले बैठे रह कर
हम कहां पहुंचेंगे ?
अपने भीतर व्याप्त विचारों को  
कब साकार करेंगे?
आज
सुख का पौधा
सूख गया है,
अहंकार जनित गर्मी ने
दिया है उसे सुखा।
आज का मानस
आता है नज़र
तन,मन,धन से भूखा!
कैसे नहीं उसकी जीवन बगिया में पड़ेगा सूखा?
आज दिख रहा वह,लालच के दरिया में बह रहा।
बाहर भीतर से मुरझाया हुआ, सूखा, कुमलहाया सा।

सुन मेरे भाई!
लोभ लालच की प्रवृति ने
नैसर्गिक सुख तुम से छीन लिए हैं ,
आज सब असमंजस में पड़े हुए हैं।

चेतना
सुख का वह बीज है ,
जो मनुष्य को जीवन्त बनाए रखती है।
मनुष्यता का परचम लहराए रखती है।

यह बने हमारी आस्था का केंद्र।
यह सुख की चाहत सब में भर,
करे सभी को संचालित
नहीं जानते कि सुखी रहने की चाहत,से ही
मनुष्य की क्रियाएं,प्रतिक्रियाएं, कामनाएं होती हैं चालित।
लेने परीक्षा तुम्हारी
वासना के कांटे
सुख की राह में बिछाए गए हैं।
भांति भांति के लोभ, लालच दे कर
लोग यहां भरमाए  गए हैं।
नहीं है अच्छी बात,
चेतना को विस्मृति के गर्त में पहुंचा कर,
पहचान छिपाना
और अच्छी भली राह से भटक जाना ।

अच्छा रहेगा, अब
शनै:शनै:
अपनी लोलुपता को घटाना,
धीरे धीरे
अपनी अहंकार जनित
जिद को जड़ से मिटाना।
जिससे रोक लग सके
मनुष्य की  अपनी जड़ें भूलने की प्रवृत्ति पर।

बहुत जरूरी है कि
मनुष्य वृक्ष होने से पहले ही
अपना मूल पहचाने,
वह अपनी जड़ों को जाने।

यही सार्थक रहेगा कि आज मानव
विचारों की कंकरियों के ढेर के मध्य
अपनी जीवंतता से साक्षात्कार  कर पाए।
54 · Jan 6
दौड़
साला
कोल्हू का बैल
खेल गया खेल !
नियत समय पर
आने की कहकर
हो गया रफूचक्कर !!
आने दो
बनाता हूँ उसे घनचक्कर!
यह सब एक दिन
कोल्हू के बैल के
मालिक ने यह सब सोचा था।
पर कोल्हू का बैल
बड़ी सफ़ाई से
खुद को बचा गया था।
आज वह अपने मालिक को
वक़्त की गति को पूर्णतः
गया है समझ
कि विश्व गया है बदल
अतः उसे भी अब बदलना होगा।
जैसे की तैसे वाली नीति पर चलना होगा।
अब वह मालिक को सबक
सिखाना चाहता है
और मालिक से सीख लेने की बजाय
मालिक को भीख और
अनूठी सीख देना चाहता है।

आज मिस्टर बैल तो
आगे बढ़ा ही है, उसका मालिक भी
अभूतपूर्व गति से गया है बढ़ !
वह कोल्हू के बैल से और सख्ती से लेता है काम।

कोल्हू का बैल
सोचता रहता है अक्सर कि
क्या खरगोश और कछुए की दौड़ में
आज कछुआ जीत भी पाएगा ?
साले खरगोश ने तो
अब तक अपनी यश कथा
पढ़ी ही नहीं होगी,
बल्कि उस दुर्घटना से
जीवन सीख भी ले ली होगी कि
दौड़ में रुके नहीं कि गए काम से !
फिर तो ज़िन्दगी भर रोते रहना आराम से !!
यह सोच वह मुस्कराया और जुट गया
अपने काम में जी जान से।
उसे भी जीवन की दौड़ में
पीछे नहीं रहना है।
समय के बहाव में बहना है।
१४/११/१९९६.
Joginder Singh Nov 2024
अब हमें
दबंगों को,
कभी-कभी
दंगाइयों के संग
और
दंगा पीड़ितों को
दबंग, दंगाइयों के साथ
रखना चाहिए ,
ताकि
सभी परस्पर
एक दूसरे को जान सकें,
और भीतर के असंतोष को खत्म कर
खुद को शांत रख सकें,
ढंग से जीवन यापन कर सकें,
जीवन पथ पर
बिखरे बगैर
आगे ही आगे बढ़ सकें,
ज़िंदगी की किताब को
अच्छे से पढ़ सकें,
खुद को समझ और समझा सकें।


देश में दंगे फसाद ही
उन्माद की वजह बनते हैं,
ये जन,धन,बल को हरते हैं,
इन की मार से बहुत से लोग
बेघर हो कर मारे मारे भटकते हैं।

जब कभी दंगाई
मरने मारने पर उतारू हों
तो उन्हें निर्वासित कर देना चाहिए।
निर्वाचितों को भी चाहिए कि
उनके वोटों का मोह त्याग कर
उन्हें तड़ीपार करने की
सिफारिश प्रशासन से करें
ताकि दंगाइयों को  
कारावास में न रखकर
अलग-अलग दूरस्थ इलाकों में
कमाने, कारोबार करने,सुधरने का मौका मिल सके।
यदि वे फिर भी न सुधरें,
तो जबरन परलोक गमन कराने का रास्ता
देश की न्यायिक व्यवस्था के पास होना चाहिए।
आजकल के हालात
बद्तर होते-होते
असहनीय हो चुके हैं।
अंतोगत्वा
सभी को,
दबंगों को ही नहीं,
वरन दंगाइयों को भी
अपने  अनुचित कारज और दुर्व्यवहार
से गुरेज करना चाहिए
अन्यथा
उन सभी को
होना पड़ेगा
निस्संदेह
व्यवस्था के प्रति
जवाबदेह।
सभी को अपने दुःख, तकलीफों की
अभिव्यक्ति का अधिकार है,
पर अनाधिकृत दबाव बनाने पर ,
दंगा करने और करवाने पर
मिलनी चाहिए सज़ा,
साथ ही बद्तमीजी करने का मज़ा।

देश के समस्त नागरिकों को
अपराधी बनने पर
कोर्ट-कचहरी का सामना करना चाहिए,
ना कि दहशत फैलाने का कोई प्रयास ।


दंगा देश की
अर्थ व्यवस्था के लिए घातक है,
यह प्रगति में भी बाधक है,
इससे दंगाइयों के भी जलते हैं।
पर वे यह मूर्खता करने से
कहां हटते हैं?
वे तो सब को मूर्ख और अज्ञानी समझते हैं।
१२/०८/२०२०.
आज भी
अराजकता के
इस दौर में
आम जनमानस
न्याय व्यवस्था पर
पूर्णरूपेण करता है भरोसा।

बेशक प्रशासन तंत्र
कितना ही भ्रष्ट हो जाए ,
आम आदमी
न्याय व्यवस्था में
व्यक्त करता है विश्वास ,
वह पंच परमेश्वर की
न्याय संहिता वाली आस्था के
साथ दूध का दूध , पानी का पानी होना
अब भी देखना चाहता है
और इसे हकीकत में भी देखता है ,
आज भी आम जन मानस के सम्मुख
कभी कभी न्यायिक निर्णय बन जाते हैं नज़ीर और मिसाल
...न्याय व्यवस्था लेकर बढ़ने लगती है जागृति की मशाल।
उसके भीतर हिम्मत और हौंसला
पैदा करती है न्याय व्यवस्था,
त्वरित और समुचित फैसले ,
जिससे कम होते हैं
आम और खास के बीच बढ़ते फासले।
न्यायाधीश
न्याय करता है
सोच समझ कर
वह कभी भी एक पक्ष के हक़ में
अपना फैसला नहीं सुनाता
बल्कि वह संतुलित दृष्टिकोण के साथ
अपना निर्णय सुनाता है ,
जिससे न्याय प्रक्रिया कभी बाधित न हो पाए।
आदमी और समाज की चेतना सोई न रह जाए।
जीवन धारा अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ पाए।
०५/०१/२०२५.
प्रारब्ध
जीवन और मरण
आरम्भ और अंत
अंत और आरंभ से संप्रकृत
एक घटनाक्रम भर है ,
जो जीवन चक्र का हिस्सा भर है।
यहां अंत में
आरम्भ की संभावना की
खोज करने की लालसा है
और साथ ही
आरम्भ में सुख समृद्धि और संपन्नता की
मंगल कामना निहित रहती है।
सृष्टि में कुछ भी नष्ट नहीं होता है।
महज़ दृष्टि परिवर्तन और ऊर्जा का रूपांतरण होता है।


आदमी की सोच में
उपरोक्त विचार कहां से आते हैं ?
यह सच है कि प्रारब्ध एक घटनाक्रम भर है।
यह सिलसिला है कभी न समाप्त होने वाला
जिससे जुड़े हैं कर्मों के संचित फल और उन्हें भोगना भर ,
कर्मों को भोगते हुए, नए कर्म फलों को निर्मित करना,
सारे कर्म फल एक साथ भोगे नहीं जा सकते ,
ये संग्रहित होते रहते हैं बिल्कुल एक बैंक बैलेंस की तरह।

आरम्भ के अंत की बाबत सोचना
एक आरंभिक स्थिति भर है
और अंत का आरंभ भी एक क्षय का क्षण पकड़ना भर है
प्रारब्ध कथा कहती है कि कुछ नहीं होता नष्ट!
नष्ट होने का होता है आभास मात्र।
प्रारब्ध के मध्य से गुजरने के बाद
जीवात्मा विशिष्टता की ओर बढ़ती है।
यह जीवन यात्रा में उत्तरोत्तर उत्कृष्टता अर्जित करती है।

प्रारब्ध एक घटनाक्रम भर है।
जिसमें से गतिमान हो रहा यह जीवन चक्र है।
११/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अभी अभी
टेलीविजन पर
एक कार्यक्रम देखते हुए,
ब्रेक के दौरान
विज्ञापन देखते हुए
आया एक ख्याल
कि श्रीमती को
दिया जाए एक उपहार।
विज्ञापित सामग्री खरीदी जाए,
और एक टिप्पणी के साथ
श्रीमती जी को सहर्ष
सौंप दी जाए।
विज्ञापन कुछ यूं प्रदर्शित था,
मक्खन सी मुलामियत वाली
पांच सौंदर्य साबुन के  पैक के साथ
एक बॉलपेन फ्री।

श्रीमती की लेखन प्रतिभा का  
करते हुए सम्मान
उन्हें
उपरोक्त विज्ञापन वाली
सामग्री दी जाए,
साथ ही किया जाए
टिप्पणी सहित अनुरोध,
" ....यह सौंदर्य सामग्री बॉलपेन की
ऑफ़र के साथ प्राप्त हुई है जी।
आप  इसका उपयोग करें,
सौंदर्य साबुन से
मल मल कर स्नान कीजिए।
साबुनों के साथ मिले
फ्री के पैन से  कविताएं लिखें
और सुनाएं,
निखार के साथ भी, निखार के बाद भी,मन बहलाएं जी।"

विज्ञापित सामग्री मैं बाज़ार से
ले आया हूं,
सोचता हूँ,
दूं या न दूं,
दूं तो डांट, फटकार के लिए
खुद को तैयार करूँ।
आप से मार्ग दर्शन अपेक्षित है।
वैसे अनुरोधकर्ता घर बाहर उपेक्षित है,
एक दम भोंदू,
रोंदू पति की तरह,
जो तीन में है न तेरह में।
ढूंढता है मजा जीने में,
कभी कभार की सजा में।
यह जीवन अद्भुत है।
इसमें समय मौन रहकर
जीव में समझ बढ़ाता है।
यहाँ कठोरता और कोमलता में
अंतर्संघर्ष चलता है।
कठोर आसानी से कटता नही,
वह बिना लड़े हार मानता नहीं,
उसे हरदम स्वयं लगता है सही।
कोमल जल्द ही पिघल जाता है,
वह सहज ही हिल मिल जाता है,
वह सभी को आकर्षित करता है।
उसके सान्निध्य में प्रेम पलता है।
कठोर भी भीतर से कोमल होता है,
पर जीवन में अहम क़दम क़दम पर
उसका कभी कभी आड़े आ जाता है।
सो ,इसीलिए वह खुद को
अभिव्यक्त नहीं कर पाता है।
कठोर कोमलता को कैसे सहे?
सच है, उसके भीतर भी संवेदना बहे।
कठोरता दुर्दिनों में बिखरने से बचाती है,
जबकि कोमलता जीवन धारा में
मतवातर निखार लेकर आती रही है।
कठोर कोमलता को कैसे सहे ?
वह बिखरने से बचना चाहता है,
वह हमेशा अडोल बना रहता है।
24/02/2025.
आजकल देश दुनिया में
जितनी समस्याएं
संकट बनकर चुनौतियां दे रहीं हैं
उसके अनुपात में
विकल्प ढूंढ़ने के लिए
संकल्पना का होना अपरिहार्य है।
इससे कम न अधिक स्वीकार्य है।
हम सबके संकल्प
होने चाहिएं दृढ़ता का आधार लिए
ताकि संतुलित जीवन दृष्टि
हमें सतत् आगे बढ़ाने के लिए
पुरज़ोर प्रोत्साहित करती रहे।
समाज में वैषम्य किसी हद तक
कम किया जा सके।
समस्त बंधु बांधवों में
नई ऊर्जा और उत्साह से निर्मित
उमंग तरंग और चेतना जगाकर
देश दुनिया व समाज को
नित्य नूतन नवीन रास्ते पर
चलने , आगे बढ़ने के लिए
निरंतर प्रयास किए जा सकें।
सबके लिए
संभावना के द्वार खोले जा सकें।
सभी बंधुओं को
जड़ों से जोड़कर
उनका जीवन पथ प्रशस्त किया जा ‌सके।
उनके मन-मस्तिष्क के
भीतर उजास जगाया जा सके।
उन्हें उदास होने से बचाया जा सके।
आज सभी को खोजने होंगे
जीवन में आगे बढ़ने के निमित्त
नित्य नूतन विकल्प,
वह भी दृढ़ संकल्प शक्ति के साथ
ताकि सभी जीवन में जूझ सकें।
अपने भीतर मनुष्योचित
सूझबूझ और पुरुषार्थ उत्पन्न कर सकें।
जीवन में सुख समृद्धि और सम्पन्नता को वर सकें।
०१/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
दीन ओ धर्म के नाम पर
जब अवाम को
बरगलाया जाता है,
तब क्या ईश्वर को
भुलाया नहीं जाता है?

दीन ओ धर्म
तब तक बचा रहेगा ,
जब तक आदमी का किरदार
सच्चा बना रहेगा ।

दीन ओ धर्म
तभी तक असरकारी है,
जब तक आदमी की
आंखों में
शर्म ओ हया के
जज़्बात जिंदा रहते हैं,
अन्यथा लोग हेराफेरी,
चोरी सीनाज़ोरी में
संलिप्त रहते हैं,
अंहकारी बने रहते हैं,
जो धर्म और कर्म को
दिखावा ही नहीं,
बल्कि छलावा तक मानते हैं।
ऐसे लोग
धर्म की रक्षा के नाम पर
देश, समाज, दुनिया को बांटते हैं,
नफ़रत फैला कर
अपनी दुकान चलाते हैं,
भोले भाले और भले आदमी
उनके झांसे में आकर
बेमौत मारे जाते हैं।
Joginder Singh Nov 2024
औपचारिकता
लेती है जब
सर्प सी होकर
डस।
आदमी का
अपने आसपास पर
नहीं
चलता कोई
वश।

तुम
अनौपचारिकता को
धारण कर,
उससे
अकेले में
संवाद रचा कर,
आदमी की
समसामयिक
चुप्पी  को तोड़ो।
उसे
जिंदगी के
रोमांच से
जोड़ो ।

तुम
जोड़ो
उसे जीवन से
ताकि
वह भी
निर्मल
जल धारा सा
होकर बहे ,
नाकि
अब और अधिक
अकेला रहे
और
अजनबियत का
अज़ाब सहे।

१०/०१/२००९.
53 · Dec 2024
When Life Says
Joginder Singh Dec 2024
Friend concentrate yourself
when Life wants to say you something unique,
while addressing you.

Hold your breath dear !
Nowadays days you are facing a fear of pollution, which is spreading its adversities arround you.

Forget about regret regarding this .
You have no control over it.

You are merely a victim of merciless world,which is dancing arround you.

Observe yourself and your hectic activities,which resulted in destructive reactions in your consciousness.
Think a bit today who is active and responsible for destruction.
Think about reconstruction of life with a presence of common sense in the mind.
Life expresses his own felt truths to motivate all, despite big or small from time to time.

Life demands from us to think and check the reconditioning of mind in the constantly changing circumstances of life.
Joginder Singh Nov 2024
ਤੁਸੀਂ ਦਿਲ ਨਾਲ ਕੰਮ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ
ਹਰ ਵੇਲੇ ਵਿਹਲੇ ਬੈਠੇ ਹੋਏ ਨਜ਼ਰ ਆਉਂਦੇ ਹੋ
ਜਾਂ ਫਿਰ ਕਦੇ ਕਦੇ
ਇਧਰ ਉਧਰ ਬੰਦਰਾਂ ਵਾਂਗ ਟਪੂਸੀਆਂ ਭਰਦੇ ਹੋ ।

ਕਦੇ ਕਦੇ ਕੰਮ ਕਰਦੇ ਨਜ਼ਰ ਆਉਂਦੇ ਹੋ,
ਉਹ ਵੀ ਵਾਰ ਵਾਰ ਟੋਕਣ ਤੋਂ ਬਾਅਦ,
ਇਹ ਠੀਕ ਨਹੀਂ ਹੈ , ਕਾਕਾ ਜੀ,
ਤੁਸੀਂ ਦਿਲ ਲਗਾ ਕੇ ਕੰਮ ਕਰੋ,
ਮਾਰੋ ਨਾ ਹੁਣ ਡਾਕਾ ਜੀ।

ਤੁਸੀਂ ਕੰਮ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰਦਿਆਂ ਹੀ
ਬਦਨ ਢਿੱਲਾ ਛੱਡ ਕੇ
ਬਹੁਤ ਜ਼ਿਆਦਾ ਥੱਕ ਜਾਣ ਦੀ
ਕਰਦੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹੋ ਸ਼ਿਕਾਇਤ,
ਇਹ ਵਤੀਰਾ ਬਿਲਕੁਲ ਨਹੀਂ ਹੈ ਜਾਇਜ਼।

ਬੰਦਾ ਜੇਕਰ ਵਿਹਲਾ ਬੈਠਣਾ ਸਿੱਖ ਜਾਵੇ,
ਉਹ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਵੀ ਨਾ ਭਾਵੇ।
ਅਜਿਹੀਆ ਬੰਦਾ ਜੇਕਰ ਦਿਨ ਭਰ
ਦੁਨਿਆਵੀ ਕਿਰਿਆ ਕਲਾਪਾਂ ਨੂੰ ਵੇਖਦਾ ਰਹੇ ,
ਕੋਈ ਵੀ ਕੰਮ ਨਾ ਕਰੇ,
ਤਾਂ ਵੀ ਛੇਤੀ ਹੀ ਥੱਕ ਜਾਂਦਾ ਹੈ
ਅਤੇ ਕਦੇ ਕਦੇ ਤਾਂ ਉਸਦੀ
ਵਾਰ ਵਾਰ ਕੀਤੀ ਜਾਣ ਵਾਲੀ ਬਕਵਾਸ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ ਸੁਆਦਾਂ ਨੂੰ ਕਸੈਲਾ ਬਣਾ ਦਿੰਦੀ ਹੈ ।

ਵਧੀਆ ਰਹੇਗਾ ਅਸੀਂ ,
ਸਮੇਂ ਸਮੇਂ ਤੇ ਆਪਣੇ ਕੰਮਾਂ ਦੀ ਕਰੀਏ ਪੜਚੋਲ।

ਸੱਚ ਤਾਂ ਇਹ ਹੈ ਕਿ
ਕੰਮ ਕੋਈ ਸਜ਼ਾ ਨਹੀਂ ਹੈ ਜੀ।
ਇਸ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ
ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ
ਪ੍ਰਾਪਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ,
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਧਨ, ਦੌਲਤ, ਸ਼ੋਹਰਤ।
ਇਹ ਰੱਬ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਹੈ ਕਿ
ਬੰਦਾ ਦਿਨ ਰਾਤ ਰੱਜ ਕੇ ਕੰਮ ਕਰੇ,
ਉਹ ਕਦੇ ਕੰਮ ਕਰਨ ਤੋਂ ਪਿੱਛੇ ਨਾ ਹਟੇ।
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