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हवा में झूलने
जैसा हो गया है
अब उम्र बढ़ने से ,
याददाश्त कमज़ोर होने से ,
बार बार भूलना ,
और किसी नज़दीकी का
याद दिलाना ,
याद दिलवाने की
प्रक्रिया रह रहकर दोहराना ।
आदमी का
फिर भी भूलते जाना ।
स्मृतियों का हवा हवाई हो जाना ,
भीतर तक
कर देता है बेचैन !
बरबस
कभी कभी
बरस जाते हैं नैन !
जिन्दगी की धूप छाँव में
स्मृति की बदलियां
कभी कभी
बरस जाती हैं ,  
याददाश्त की किरणें
अचानक मन के भीतर
प्रवेश कर
आदमी को सुकून दे जाती हैं ,
मन को कमल सा खिला देती हैं।
भूलना लग सकता है
आदमी को शूल
मगर यह जिंदगी का स्वप्निल दौर भी
कभी हो जाता है
समय की धूल जैसा।
जिसे कोई स्मृति अचानक कौंध कर
कर देती है साफ़ !
सब कुछ याद आने लगता है ,
फिर झट से आदमी
अपना आस पास जाता है भूल,
उसकी चेतना पर पड़ जाती अचानक समय की धूल,
आदमी जाता भूल, अपना मूल !
यहीं है जीवन पथ पर बिखरे शूल !!
भूलना हवा में
झूलने जैसा हो गया है,
ऐसा लगता है कभी कभी
जीवन पथ कहीं खो गया है ,
चेतन तक  
कहीं नाराज़ होकर सो गया है।
भूलना हवा में झूलने जैसा होता है जब,
आदमी अपना अता पता खोकर,
लापता हो जाता है।
कभी कभी ही वह लौट पाता है !
वापसी के दौरान वह फिर अपनी सुध बुध भूल
कहीं भटकने लगता है।
ऐसी दशा देख कर
कोई उसका प्यारा
तड़पने लगता है।
०३/०३/२०२५.
जब पहले पहल
नौकरी लगी थी
तब तनख्वाह कम थी
पर बरकत ज़्यादा थी।
अब आमदनी भी
पहले की निस्बत ज़्यादा,
पर बरकत बहुत ही कम!
कल थरमस खरीदी,
दाम दिए हजार रुपए से
थोड़े से कम !
पहली नौकरी में
महीना भर काम करने के
उपरांत मिले थे
पगार में लगभग नौ सौ रुपए।
मैं बहुत खुश था !
कल मैं सन्न रह गया था !
निस्संदेह
महंगाई के साथ साथ
संपन्नता भी बढ़ी है।
पर इस नक चढ़ी
महंगाई ने
समय बीतते बीतते
अपने तेवर
दिखाए हैं!
कम आय वर्ग को
ख़ून के आँसू रुलाए हैं !
बहुत से मेहनतकश
बेरहम महंगाई ने
जी भर कर सताए हैं !!
आओ कुछ ऐसा करें!
सभी इस बढ़ती महंगाई का सामना
अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करते हुए करें।
सब ख़ुशी ख़ुशी नौकरी और काम धंधा करें,
वे इस बढ़ती महंगाई को विकास का नतीजा समझें ,
इससे कतई न डरें !
वे महंगाई के साथ साथ
जीवन संघर्ष में जुटे रहें !!
०३/०३/२०२५.
जो चोर है
वही करता शोर है,
इस दुनिया में
अत्याचार घनघोर है!
साहस दिखाने का
जब समय आता है,
अपना चोर भाई!
पीछे हट जाता है।
शायद तभी
वह शातिर कहलाता है।
अचानक
भीतर से एक आवाज़ आई
सच को उजागर करती हुई,
"पर ,कभी कभी
सेर को सवा सेर
टकरा जाता है।
वह चुपके से
चकमा दे जाता है,
अच्छे भले को
बेवकूफ़ बना जाता है।"
बेचारा चोर भाई !
मन ही मन में
दुखियाता रहता है,
वह कहां सुखी रह पाता है ?
एक दिन वह चुप ही हो जाता है।
वह शोर करना भूल जाता है।
जब समय आता है,
तब वह वही शोर करने से
बाज़ नहीं आता है।
इसमें ही उसे लुत्फ़ और मज़ा आता है।
वह इसी रंग ढंग से ज़िन्दगी जी कर
टाटा बाय बाय कर जाता है।
उसके जाने के बाद सन्नाटा भी
कुछ उदास हुआ सा पसर जाता है।
वह भी चोर के शोर मचाने का
इंतज़ार करने लग जाता है
कि कोई आए और जीवन को करे साकार।
वह भरपूर जिंदगी जीते हुए
लौटाए
जिन्दगी को
चोरी की हुई
जिंदगी की
लूटी हुई बहार ,
जीवन में लेकर आए
सहज रहकर करना सुधार
और निर्मित करना जीवनाधार।



०२/०३/२०२५.
उम्र जैसे जैसे बढ़ी
मुझे ऊंचा सुनने लगा है ।
जब कोई कुछ कहता है,
मैं ठीक से सुन पाता नहीं।
कोई मुझे इसका कराता है
चुपके चुपके से अहसास।
मैं पास होकर भी हो जाता हूं दूर।
यह सब मुझे खलता है।
वैसे बहुत कुछ है
जो मुझे अच्छा नहीं लगता।
पर खुद को समझाता हूं
जीवन कमियों के साथ
है आगे मतवातर बढ़ता।
इस में नहीं होना चाहिए
कोई डर और खदशा।
०१/०३/२०२५.
जब आप किसी के
ख़िलाफ़  कुछ कहने का
साहस जुटाने की
ज़ुर्रत करते हैं ,
आप जाने अनजाने
कितने ही
जाने पहचाने और अनजाने चेहरों को
अपना विरोधी बना लेते हैं !
जिन्हें आजकल लोग
दुश्मन समझने की भूल करते हैं !
आज दोस्त बनाने और दुश्मन कहलाने का
किस के पास है समय ?
यदि कभी समय मिल ही जाए
तो क्यों न आदमी इसे अपने
निज के विकास में लगाए ?
वह क्यों किसी से उलझने में
अपनी ऊर्जा को लगाए ?
वह निज से संवाद रचा कर
मन में शान्ति ढूंढने का
करना चाहे उपाय।
आज देखा जाए तो अश्लील कुछ भी नहीं !
क्योंकि आज एक छोटे से बच्चे के हाथ में
मोबाइल फोन दे दिया जाता है ,
ताकि बच्चा रोए न !
मां बाप की आज़ादी में
भूल कर दखल दे न !
जाने अनजाने अश्लीलता बच्चे के अवचेतन में
छाप छोड़ जाती है।
जबकि बच्चे को ढंग से
अच्छे बुरे का विवेक सम्मत फ़र्क करना नहीं आता।

आजकल
इंटरनेट का उपयोग बढ़ गया है,
इसका इस्तेमाल करते हुए
यदि भूल से भी
कुछ गलत टाइप हो जाए
तो कभी कभी अवांछित
आंखों के सामने
चित्र कथा सरीखा मनोरंजक लगकर
अश्लीलता का चस्का लगा देता है ,
जीवन के सम्मुख एक प्रश्नचिह्न लगा देता है।
आज सच को कहना भी अश्लील हो गया है !
झूठ तो खैर अश्लीलता से भी बढ़कर है।
हम अश्लीलता को तिल का ताड़ न बनाएं,
बल्कि अपने मन पर नियंत्रण करना खुद को सिखाएं।
यदि आदमी के पास मन को पढ़ने का हुनर आ जाए ,
तो यकीनन अश्लीलता भी शर्मा जाए ।
भाई भाई के बीच नफ़रत और वैमनस्य भर जाए ।
रामकथा के उपासक भी
महाभारत का हिस्सा बनते नज़र आएं।
क्यों न हम सब सनातन की शरण में जाएं।
वात्स्यायन ऋषि के आदर्शों के अनुरूप
समाज को आगे बढ़ाएं।
हमारा प्राचीन समाज कुंठा मुक्त था।
यह तो स्वार्थी आक्रमणकारियों का दुष्चक्र था,
जिसने असंख्य असमानता की
पौषक कुरीतियों को जन्म दिया,
जिसने हमारा विवेक हर लिया ,
हमें मानवता की राह से भटकने पर विवश कर दिया।
सांस्कृतिक एकता पर
जाति भेद को उभार कर
दीन हीन अपाहिज कर दिया।
अच्छे भले आदमियों और नारियों को
चिंतनहीन कर दिया ,
चिंतामय कर दिया।
सब तनाव में हैं।
आपसी मन मुटाव से
कमज़ोर और शक्तिहीन हो गए हैं।
आंतरिक शक्ति के स्रोत
अश्लीलता ने सुखा दिए हैं,
सब अश्लीलता के खिलाफ़
फ़तवा देने को तैयार बैठे हैं,
बेशक खुद इस समस्या से ग्रस्त हों।
सब भीतर बाहर से डर हुए हैं।
कोई उनका सच न जान ले !
उनकी पहचान को अचानक लील ले !!

अश्लीलता के खिलाफ़
सब को होना चाहिए।
इस बाबत सभी को
जागरूक किया जाना चाहिए।
ताकि
यह जीवन को न डसे !
बल्कि
यह अनुशासित होकर सृजन का पथ बने !!
२८/०२/२०२५.
भोजन भट्ट
खा गया चटपटे खाद्य पदार्थ !
ले ले कर स्वाद
झटपट !
अब ले रहा है
नींद में झूट्टे
और थोड़ी थोड़ी देर के बाद
बदल रहा है करवट,
रेल सफर के दौरान।
चेहरा उसका बता रहा
वह ज़िन्दगी के सफर में भी है
संतुष्ट !
आदमी जिसे
भोजन से मिल जाए
परम संतुष्टि !
हे ईश्वर!
ऐसे देव तुल्य पुरुष पर
बनाए रखना
सर्वदा सर्वदा
अपनी कृपा दृष्टि !
देश दुनिया के बाशिंदों को
दिलाते रहना हमेशा
खाद्य संतुष्टि !
हम जैसे प्राणी भी
श्रद्धापूर्वक करते रहें
ईश्वरीय चेतना की स्तुति
ताकि सभी संतुष्ट जन
जीवन यात्रा के दौरान
अनुभूत कर सकें
दिव्यता से परिपूर्ण
अनुभूति !
वे खोज सकें
मार्ग दर्शक विभूति !!
२७/०२/२०२५.
बचपन में
परिश्रम करने की
सीख
अक्सर दी जाती है,
परिश्रम का फल
मीठा होता है,
बात बात पर
कहा जाता है।
बचपन
खेल कूद ,
शरारतों में बीत जाता है।
देखते देखते
आदमी बड़ा होते ही
श्रम बाज़ार में
पहुँच जाता है,
वहाँ वह दिन रात खपता है,
फिर भी उसे मीठा फल
अपेक्षित मात्रा में
नहीं मिलता है,
परिश्रम के बावजूद
मन में कुछ खटकता है।
श्रम का फल
ठेकेदार बड़ी सफाई से
हज़म कर जाता है।
यहाँ भी पूंजीवादी
बाज़ी मार ले जाता है।
मेहनत मशक्कत करनेवाला
प्रतिस्पर्धा में टिकता ज़रूर है।
शर्म छोड़कर बेशर्म बनने वाला
बाज़ार में सेंध लगा लेता है,
हाँ,वह मज़दूर से तनिक ज़्यादा कमा लेता है !
नैतिकता की दृष्टि से वह भरोसा गंवा लेता है!!
शर्म छोड़कर कुछ जोखिम उठाने वाला
श्रमिक की निस्बत
अपना जीवन स्तर थोड़ा बढ़िया बना लेता है !
वह अपनी हैसियत को ऊँचा उठा लेता है !!
आज समाज भी श्रम की कीमत को पहचाने।
वह श्रमिकों को आगे ले जाने,
खुशहाल बनाने की
कभी तो ठाने।
वे भी तो कभी पहुंचें
जीवन की प्रतिस्पर्धा में
किसी ठौर ठिकाने।
आज सभी समय रहते
श्रम की कीमत पहचान लें ,
ताकि जीवन धारा नया मोड़ ले सके।
श्रमिक वर्ग में असंतोष की ज्वाला कुछ शांत रहे ,
वे कभी विध्वंस की राह चलकर अराजकता न फैलाएं।
काश! सभी समय रहते श्रमिक को
श्रम की कीमत देने में न हिचकिचाएं।
वे जीवन को सुख समृद्धि और संपन्नता तक पहुँचाएं।
२७/०२/२०२५.
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