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ज़िंदगी भर
मैं बगैर सोच विचार किए
बोलता ही गया।
कभी नहीं बोलने से पीछे हटा,
फलत: अपनी ऊर्जा को
नष्ट करता रहा,
निज की राह
बाधित करता रहा।
निरंतर निरंकुश होकर
स्वयं को रह रह कर
कष्ट में डाले रहा।
आज मैं कल की
निस्बत कुछ समझदार हूं।
कल मैं एक क्षण भी
चुपचाप नहीं बैठ सका था ,
मैंने अपना पर्दाफाश
साक्षात्कार कर्त्ता के सम्मुख
कर दिया था।
मैं वह सब भी कह गया
जिसे लोग छिपाते हैं,
और कामयाब कहलाते हैं।
ज़्यादा बोलना
किसी कमअक्ली से
कम नहीं।
यह कतई सही नहीं।
आदमी को चुप रहना चाहिए,
उसे चुपचाप बने रहने का
सतत प्रयास करना चाहिए
ताकि आदमी जीवन की अर्थवत्ता को जान ले,
स्वयं की संभावना को समय रहते पहचान ले।
आज
अभी अभी
बस यात्रा के दौरान
मैंने मौन रहने का महत्व जाना है।
सोशल मीडिया के माध्यम से
मौन के फ़ायदे के बारे में
ज्ञानार्जन किया है,
अपने जीवन में
ज्ञान की बाबत
चिंतन मनन कर
अपने आप से संवाद रचाया है।
अभी अभी
मैंने मौन को
अपनाने का फैसला किया है कि
अब से मैं कम बोलूंगा,
अपनी ऊर्जा से
खिलवाड़ नहीं ‌करूंगा ,
जीवन में मौन रहकर
आगे बढ़ने का प्रयास करूंगा,
कभी तो जीवन में अर्थवत्ता को अनुभूत कर सकूंगा,
सच के पथ पर अग्रसर होने से पीछे नहीं हटूंगा।
जीवन रण में मैं सदैव डटा रहूंगा।
कभी भी भूलकर किसी की शिकायत नहीं करूंगा।
कल और आज के
जीवन में घटित हुए घटनाक्रम ने
मुझे तनिक अक्लमंद बनाया है,
जीवन में अक्लबंद बने रहने के लिए चेताया है।
यही जीवन की सीख है,
जो यात्रा पथ पर
क़दम क़दम पर
अग्रसर होने से मिलती है,
यह आदमी के अंतर्घट में
चेतना की अमृत तुल्य बूंदें भरती है ,
जीवन में आकर्षण का संचार करती है।
३२/०१/२०२५.
सहसा
जब कोई अचानक
भीतर ही भीतर
कसमसाकर
पल पल टूटता जाए ,
जीवन से रूठता जाए ,
साहस कहीं पीछे छूटता जाए ,
तब आप ही बताइए
आदमी क्या करे ?
क्या वह जीवन में स्वयं को
आगे बढ़ने से रोक ले ?
क्यों न वह निज में बदलाव करे ?
और वह अपनी समस्त ऊर्जा को
लक्ष्य सिद्धि की खातिर
कर्मठ बनने में खपा दे ,
जब तक वह निज को न थका दे ।
जीवन में साहसी बनकर
सुख समृद्धि की ओर बढ़ा जा सकता है ,
जीवन पथ की दुश्वारियों से लड़ा जा सकता है ,
सहसा साहस भीतर भर कर डटा जा सकता है।
जीवन पथ पर संकट के बादल मंडराते रहते हैं।
साहस और सहजता से उनका सामना किया जाता है , संघर्ष के दौर में टिके रह कर विजेता बना जा सकता है।
३०/०१/२०२५.
आज के दिन  
तीस जनवरी की तारीख को
अचानक
देशवासियों को
झेलना पड़ा था आघात ,
जब किसी ने
राजनीति के चाणक्य को
दिया था
चिर निद्रा में सुला ,
सत्य अहिंसा और सत्ता के
केन्द्रबिन्दु रहे
महात्मा पर
गोलियां चला ।
वज़ह
स्पष्ट थी ,
आदमी के भीतर बसी ,
अकड़ और हठधर्मिता ,
छीन लेती है
आदमी का विवेक।

दोनों पक्ष
स्वयं को
मानते हैं सही।  
वे नहीं चाहते करना
अपने दृष्टिकोण में
समयोचित सुधार करना,
फलत: झेलते हुए पीड़ा,
दोनों ही समाप्त हो जाते हैं,
अपने आगे बढ़ने की संभावना के सम्मुख
प्रश्नचिह्न अंकित कर जाते हैं।

राजनीति के चाणक्य की
सलाह
कभी भी राजनीतिज्ञों ने
दिल से मानी नहीं,
फलत:
महात्मा को कुर्बानी देनी पड़ी।

आज देश
अराजकता के मुहाने पर खड़ा है।
देश अपनी टीस को भूलकर
तीस जनवरी को
सायरन की आवाज़ के साथ  
मौन श्रद्धांजलि देने को होता है उद्यत।
सब शीघ्रातिशीघ्र आदर्शों को भूलकर
अपनी जीवनचर्या में व्यस्त हो जाते हैं ।
वे ‌फिर से नव वर्ष के आगमन
और तीस जनवरी के इंतजार में रहते हैं
ताकि फिर से महात्मा को याद किया जा सके,
उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी जा सके।
मुझे क्या सभी को
तीस जनवरी का व्यग्रता से
रहता है इंतज़ार
ताकि महात्मा को याद कर सकें ,
बेशक उनके आदर्शों से सब मुंह मोड़े रहें।
३०/०२/२०२५.
,
आदमी के पीछे
यदि कुंठा
किसी पिशाच सरीखी होकर
पड़ जाए तो आदमी
कहां जाए ?
उसे हरेक दिशा में
अंधेरा नज़र आए !
मन के भीतर
मतवातर
सन्नाटा पसरता जाए !!
कुंठित आदमी
अपने आसपास
नागफनी सरीखी
कांटेदार वनस्पति को
जाने अनजाने रोपता है।
उसका संगी साथी भी
भय के आवरण से भीतर तक
जकड़ा हुआ
उसे अत्याचार करने से
रोक नहीं पाता है।
वह अपार कष्ट सहता जाता है !
कभी मन की बात नहीं कह पाता है !!
मित्रवर ! जीवन को सहजता से जीयो।
असमय कुंठित होकर स्वयं को न डसो।
२९/०१/२०२५.
सुख में वृद्धि कैसे हो ?
दुःख में कमी कैसे हो ?
सुख और दुःख में
आदमी कैसे तटस्थ रहे ?
वह जीवन धारा में ‌बहकर
लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु
स्वयं को संतुलित कैसे करे ?

जब कभी इस बाबत सोचता हूं
तो आता है नज़र ,
आज का आदमी है प्रखर।
वह नींद में भी
कभी कभी सोच विचार कर
अत्यधिक चिंतित और विचारमग्न रहकर
कर लेता है खुद को बीमार।
वह नींद में चलने फिरने लगता है।
उसके जीवन में चोट लगने की
संभावना बढ़ जाती है।
जागने पर वह बहुत कुछ भूला रहता है।

नींद में चलना कतई ठीक नहीं।
यह आदमी को कहीं भी पहुंचा देता है।
यह आदमी को कभी कभार नुकसान पहुंचा देता है।
इस पर काबू पाया जा सकता है।
आदमी को जीवन में ठोकर लगने से पहले ही
सजग करते हुए बचाया जा सकता है।

वैसे नींद में चलना कोई ख़तरनाक बीमारी नहीं।
यह किसी को भी हो सकती है,
बचपन में ज्यादा और वयस्कों में बहुत कम।
यदि किसी को
नींद में चलने की बाबत
बताया जाता है
तो वह हैरान रह जाता है,
जब तक उसे प्रमाणित किया जाता नहीं।
और यह है भी सही,
कौन नींद में चलने के आरोप को सहे ?
वैसे सच है कि अज्ञान की नींद में सोया हुआ
व्यक्ति और समाज तक
तकलीफ़ के बावजूद
मतवातर आगे बढ़ते देखे गए हैं।
नींद में चलने वाला आदमी भी  
अचेतावस्था में आगे बढ़ता है।
बेशक ‌जागने पर
वह अपनी इस अवस्था की बाबत
सिरे से इंकार करे।
नींद में चलना बिल्कुल स्वाभाविक है,
बेशक यह चेतन व्यक्ति को अच्छा न लगे।
जीवन धारा हरेक अवस्था में आगे बढ़ी है,
यह रोके से न कभी रुकी है।
यह सोई ही कब थी ?
जो अपनी नींद से जगने पर
हड़बड़ाए आदमी सी जगी है।
नींद में चलना स्वप्न में जीवन जीने जैसा है।
स्वप्न भंग हुआ नहीं कि
सब कुछ नष्ट प्रायः और भूल-भुलैया में खोने सरीखा ,
कुछ कुछ फीका
और
कुछ कुछ तेज़ मिर्ची सा तीखा और तल्ख।
२९/०१/२०२५.
आदमी का दंभ
जब कभी कभी
अपनी सीमा लांघ जाता है,
तब वह विद्रूपता का
अहसास कराता है,
यह न केवल उसे जीवन में
भटकने को बाध्य करता है,
बल्कि उसे सामाजिक ताने-बाने से
किसी हद तक बेदखल कर देता है।
यह उसे जीवन में उत्तरोत्तर
अकेला करता चला जाता है,
आदमी दहशतज़दा होता रहता है।
वह अपना दर्द भी
कभी किसी के सम्मुख
ढंग से नहीं रख पाता है।

कोई नहीं होना चाहता
अपने जीवन में
विद्रूपता के दंश का शिकार,
पर अज्ञानता के कारण
जीवन के सच को जान न पाने से,
अपने विवेक को लेकर
संशय से घिरा होने की वज़ह से  
वह समय रहते जीवन में
ले नहीं पाता कोई निर्णय
जो उसे सार्थकता की अनुभूति कराए ,
उसे निरर्थकता से निजात दिलवा पाए ,
उसे विद्रूपता के मकड़जाल में फंसने से बचा जाए।

विद्रूपता का दंश
आदमी की संवेदना को
लील लेता है,
यह उसे क्रूरता के पाश में
जकड़ लेता है,
आदमी दंभी होकर
एक सीमित दायरे में
सिमट जाता है ,
फलत: वह अपने मूल से
कटता जाता है ,
अपनी संभावना के क्षितिज
खोज नहीं पाता है !
दिन रात भीतर ही भीतर
न केवल
हरपल कराहता रहता है,
बल्कि वह अंतर्मन को
आहत भी कर जाता है।
उसका जीवन तनावयुक्त
बनता जाता है ,
वह शांत नहीं रह पाता है !
असमय कुम्हला कर रह जाता है !!
२८/०१/२०२५.
सच की तलाश में
इधर उधर
भटकना
कोई अच्छी बात नहीं,
आदमी
समय रहते
स्वयं को
ढंग से तराश ले,
यही पर्याप्त है।

बहुत से लोग
सोचते कुछ
और करते कुछ हैं ,
इन की वज़ह से
सुख की तलाश में
निकले जिज्ञासुओं को
भटकना पड़ता है ,
अपने जीवन में
कष्टों से जूझना पड़ता है।
यदि आदमी की
कथनी और करनी में
अंतर न रहे ,
तो सुख समृद्धि और शांति की
तलाश में और अधिक
भटकना न पड़े ,
उसे सुख चैन सहज ही मिले ,
उसका अंतर्मन सदैव खिला रहे !
वह अपने अंदर  के आक्रोश से
और
असंतोष की ज्वाला से
कभी भी न झुलसे ,
बल्कि वह समय-समय पर
अपने को जागृत रखने का प्रयास करता रहे
ताकि वह सहजता पूर्वक
अपनी मंजिल को तलाश सके।
वह जीवन में आगे बढ़ कर न केवल
अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके ,
बल्कि तनावमुक्त जीवन धारा में ‌बहकर
समय रहते
स्वयं की संभावना को
सहज ही खोज सके।
वह जीवन में
सार्थकता की अनुभूति कर सके ,
सहजता से
उसे निरर्थकता के अहसास से मुक्ति मिल सके।
२८/०१/२०२५.
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