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आदमी की जिन्दगी
और जिंदगी में आदमी
एक अद्भुत संतुलन बनाए हैं ,
वे एक दूसरे के साथ
अंतर्गुंफित से हो गए हैं,
दोनों एक दूसरे से
होड़ा होड़ी करने को हैं तैयार
बेशक आस पास उनके
यार मार करने की चली जा रही चाल।
वे अपने आप में तल्लीन
सब कुछ भूले हुए हैं।
बस उन्हें है यह विदित
कि वे दोनों
डांट डपट
छल कपट
आसपास की उठा पटक के
बावजूद
अपने अपने वजूद को
बनाए रखने के निमित्त
कर रहे हैं सतत संघर्ष
और नहीं बचा है कोई विकल्प।
आदमी की जिन्दगी
और
जिन्दगी में आदमी
सरपट भागे
जा रहें हैं अपने पथ पर।
अवसर
अक्सर
अचानक एक अजगर सा होकर
जाता है उनसे लिपट
इस हद तक कि
आदमी की जिन्दगी ,
और जिन्दगी में आदमी  को
समेट कर
बढ़ जाता है सतत
अपने पथ पर।
समय एक अजगर सा होकर
लिपटा जा रहा है
आदमी की जिन्दगी से
इस हद तक कि
उसकी जिन्दगी का किस्सा
लगने लगा है बड़ा अजीब और अद्भुत
बिल्कुल एक शांत बुत सा।
आदमी को
जिन्दगी की तेज़ रफ़्तार के दौर ने
जीने की होड़ ने ,
रोजमर्रा की दौड़ धूप ने
बना दिया है
एक बाज़ीगर सरीखा ।
वह अपनी मूल शांत प्रवृत्ति को छोड़ कर
वह बनता चला जाता है
पल पल तीखा ,एकदम तेज़ तर्रार
हरपल क़दम क़दम पर
अपने प्रतिस्पर्धी को चोट पहुंचाने को उद्यत।
आदमी लड़ता है मतवातर
परस्पर एक दूसरे से
इस हद तक
कि वह हरदम  
करना चाहता उठा पटक ।
वह जैसे ही अपने हिस्से पर
झपटने के बाद
अपने ठौर ठिकाने में लौट कर आता है ,
वह और ज़्यादा अपने भीतर सिमटता जाता है ।
जिन्दगी पर से उसका भरोसा
लगातार पीछे छूटता जाता है ,
वह निपट अकेला रह जाता है।
उसकी जिन्दगी को यह सब नहीं भाता है,
फिर भी वह आदमी का साथ नहीं छोड़ती है।
जिन्दगी का किस्सा है बड़ा अजीबोगरीब ,
आदमी जितना इससे पीछा छुड़ाना चाहता है ,
यह उतना ही
आती जाती है
आदमी के क़रीब।
आदमी कभी भी पीछा नहीं छुड़ा पाता है।
इस डांट डपट छल कपट के दौर में भी
जिन्दगी आदमी के साथ साथ
उसके समानांतर
दौड़ी जा रही है
अपने पथ पर।
यह आदमी को
निरन्तर आगे ही आगे
है बढ़ा रही ,
यह सुख समृद्धि और संपन्नता की ओर
उसे अग्रसर है कर रही।
आदमी के भीतर की बेचैनी
इस सब के बावजूद  
लगातार बढ़ती जा रही है।
यही बेचैनी उसे दरबदर कर ,
ठोकरें खाने को विवश कर
मतवातर भटका रही है।
१८/०१/२०२५.
आदमी के पास
एक संतुलित दृष्टिकोण हो
और साथ ही
हृदय के भीतर
प्रभु का सिमरन एवं
स्मृतियों का संकलन भी
प्रवेश कर जाए ,
तब आदमी को
और क्या चाहिए !
मन के आकाश में
भोर,दोपहर,संध्या, रात्रि की
अनुभूतियों के प्रतिबिंब
जल में झिलमिलाते से हों प्रतीत !
समस्त संसार परम का
करवाने लगे अहसास
दूर और पास
एक साथ जूम होने लगें !
जीवन विशिष्ट लगने लगे !!
इससे इतर और क्या चाहिए !
प्रभु दर्शन को आतुर मन
सुगंधित इत्र सा व्याप्त होकर
करने लगता है रह रह कर नर्तन।
यह सृष्टि और इसका कण कण
ईश्वरीय सत्ता का करता है
पवित्रता से ओत प्रोत गुणगान !
पतित पावन संकीर्तन !!
इससे बढ़कर और क्या चाहिए !
वह इस चेतना के सम्मुख पहुँच कर
स्वयं का हरि चरणों में कर दे समर्पण!
१७/०१/२०२५.
आजकल
दुनिया असली से
नकली बनती जा रही है ,
आभासी दुनिया की
चकाचौंध भी
अब सभी को
लुभा रही है ,
यह दिन प्रति दिन
भरमा रही है।

इस दुनिया के
अपने ही ख़तरे हैं,
हम सब आभास करते हैं
कुछ सचमुच का होने का ,
पर यह होता नहीं , कहीं भी।
इसे असल दुनिया में
खोजने लगें
तो हासिल होता कुछ भी नहीं ,
फिर भी लगता सब कुछ ठीक और सही।
मैं आभासी अंतरंगता के
दौर से भी गुजर चुका हूँ,
खुद को खूब थका चुका हूँ।
सब कपोल कल्पित
किस्से कहानियों में वर्णित
रंग बिरंगी दुनिया के
आकर्षक और लुभावने पात्रों की तरह !
इर्द गिर्द मंडराते और घूमते दिखाई देते हैं !!
एक नशीली महिमा मंडित दुनिया की तरह !
जहां असलियत और सच्चाई के लिए
होती नहीं कोई जगह बेवजह।

आभासी दुनिया का सच
कब हो जाए गायब और गुम !
यह कर दे इंसान को गुमसुम !!
कुछ कहा नहीं जा सकता !
बहुत कुछ कभी सहा नहीं जा सकता !!

जैसे ही रीचार्ज खत्म
समझो आभासी दुनिया का तिलिस्म भी हुआ खत्म !
और जैसे ही इंटरनेट कनेक्शन हुआ डिस्कनेक्ट !
वैसे ही समझो अब कुछ खत्म और समाप्त !
समूल सत्यानाश ! सब कुछ तहस नहस !
जीते जी बेड़ा गर्क !
जिन्दगी बन जाती साक्षात नरक !

इस आभासी दुनिया के खिलाड़ी
एक आभासी दुनिया में रहकर संतुष्ट होते हैं !
वे किसी हद तक
स्व निर्मित कैद को भोगने को विवश होते हैं !
क्या कभी कल्पित वास्तविकता
हम सब को हड़प जाएगी ?
हाय!तब हमारी असली दुनिया कहाँ ठौर ठिकाना पाएगी?
१७/०१/२०२५.
ऋण लेकर
घी पीना ठीक नहीं ,
बेशक बहुत से लोग
खुशियों को बटोरने के लिए
इस विधि को अपनाते हैं।
वे इसे लौटाएंगे ही नहीं!
ऋणप्रदाता जो मर्ज़ी कर ले,
वे बेशर्मी से जीवन को जीते हैं।
ऋण लौटाने की कोई बात करे
तो वे लठ लेकर पीछे पड़ जाते हैं।
ऐसे लोगों से निपटने के लिए
बाउंसर्स, वकील, क़ानून की मदद ली जाती है ,
फिर भी अपेक्षित ऋण वसूली नहीं हो पाती है।

कुछ शरीफ़ इंसान अव्वल तो ऋण लेते ही नहीं,
यदि ले ही लिया तो उसे लौटाते हैं।
ऐसे लोगों से ही ऋण का व्यापार चलता है,
अर्थ व्यवस्था का पहिया विकास की ओर बढ़ता है।

ऋण लेना भी ज़रूरी है।
बशर्ते इसे समय पर लौटा दिया जाए।
ताकि यह निरन्तर लोगों के काम में आता जाए।

कभी कभी ऋण न लौटाने पर
सहन करना पड़ता है भारी अपमान।
धूल में मिल जाता है मान सम्मान ,
आदमी का ही नहीं देश दुनिया तक का।
देश दुनिया, समाज, परिवार,व्यक्ति को लगता है धक्का।
कोई भी उन पर लगा देता है पाबंदियां,
चुपके से पहना देता है अदृश्य बेड़ियां।
आज कमोबेश बहुतों ने इसे पहना हुआ है
और वे इस ऋण के मकड़जाल से हैं त्रस्त,
जिसने फैला दी है अराजकता,अस्त व्यस्तता,उथल पुथल।

हो सके तो इस ऋण मुक्ति के करें सब प्रयास !
ताकि मिल सके सभी को,
क्या व्यक्ति और क्या देश को, सुख की सांस !!
सभी को हो सके सुख समृद्धि और संपन्नता का अहसास!!
१७/०१/२०२५.
चोरी चोरी
चुपके चुपके
बहुत कुछ
घटता है छुप छुप के।
अगर अचानक कोई
रंगे हाथों पकड़ा जाता है,
तो उसका प्यार
या फिर लुकाव छुपाव
सबके सामने आ जाता है ,
स्वत: सब कुछ खुल कर
नजर आ जाता है ,
पर्दाफाश हो जाता है।
हरेक शरीफ़ और बदमाश तक
प्रायः इस अनावृत हो जाने की
घबराहट की जद में आ जाता है।
पर्दाफाश होने का डर
आदमी के
समाप्त होने तक
पीछा करता रहता है।
अच्छा रहेगा
आदमी दुष्कर्म न ही करे
ताकि कोई डर
अवचेतन मन में
दु:स्वप्न बनकर
मतवातर पीछा न करे।
16/01/2025.
उन्होंने मुझे देना चाहा
नव वर्ष की शुभ कामनाओं के साथ
एक आकर्षक कैलेंडर
परंतु मैंने शुभ कामनाओं को
अपने पास संभाल कर रख लिया और
कैलेंडर विनम्रता से लौटा दिया।
वज़ह छोटी व साफ़ थी कि
कैलेंडर पर आराध्य प्रभु की छवि अंकित थी।
साल ख़त्म हुआ नहीं कि
कैलेंडर अनुपयोगी हुआ।
वह शीघ्र अतिशीघ्र कूड़े कचरे के हवाले हुआ।
यह संभव नहीं कि उसे फ्रेम करवा कर संभाला जाए।
फिर क्यों जाने अनजाने
अपने आराध्य देवियों और देवताओं का
अपमान किया जाए ?
अच्छा रहेगा कि कैलेंडरों पर
धार्मिक और आस्था के स्मृति चिन्हों को
प्रकाशित न किया जाए।
उन पर रंगीन पेड़ पौधे,पुष्प,पक्षी,पशु और
बहुत कुछ सार्थकता से भरपूर जीवन धारा को
इंगित करता मनमोहक दृश्वावलियों को छापा जाए।
जो जीवन की सार्थकता का अहसास करवाए ,
मन में मतवातर प्रसन्नता के भावों को जगाए ।
१६/०१/२०२५.
सर्दियों की धूप
देती है
देह को,
देह में रहते नेह को
अपार सुख।
यही गुनगुनी धूप आदमी को
जिन्दगी में गुनगुनाने को
करती है मजबूर
कि उसके भीतर की
तमाम उदासी धीरे धीरे
होती जाती दूर।
सर्दियों की धूप भी
क्या होती है ख़ूब !
यह जीवन में
ऊर्जा भर जाती है,
तन और मन में
आशा और सद्भावना के
पुष्प खिला देती है ,
जीवन में संभावना की
महक का अहसास करा देती है।
ठंडी हवा के दौर में
यह धूप न केवल अच्छी लगती है
बल्कि यह भीतर तक
जीवन धारा से
आत्मीयता की ऊष्मा का बोध करवाने लगती है ,
जिससे
जिन्दगी आनंद से भरपूर लगने लगती है।
कभी कभी यह मन को मस्ताने लगती है।

सर्दियों की गुनगुनी धूप का जादू
जब सिर चढ़ कर बोलता है ,
तब आदमी का सर्वस्व आनंदित होता है ,
उसका रोम रोम भीतर तक पुलकित होता है।
ठंड से घिरे आदमियों के जीवन में
इस गुनगुनी धूप का आगमन
किसी वसंत के आने से कम नहीं।
यह जीवनदायिनी बन जाती है,
यह संजीवनी सरीखी होकर
जीवन को ऊष्मा और ऊर्जा से भरपूर कर देती है।
यह मन में सद्भावना का नव संचार भी करती है,
जिससे जीवन में सार्थकता की प्रतीति होने लगती है।
१६/०१/२०२५.
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