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आज
जीवन के मार्ग पर
निपट अकेले होते जाने का
हम दर्द
झेल रहे हैं
तो इसकी वज़ह
क्या हो सकती है?
इस बाबत कभी
सोचा होगा
आपने
कभी न कभी
और विचारों ने
इंगित किया भी होगा कि
क्या रह गई कमी ?
क्यों रह गई कमी ?

आजकल
आदमी स्वयं की
बाबत संजीदगी से
सोचता है ,
वह पर सुख की
बाबत सोच नहीं
पाता है ,
इस सब स्वार्थ की
आग ने
उसे झुलसा दिया है,
वह अपना भला,
अपना लाभ ही
सोचता है।
कोई दूसरा
जीये या मरे,
रजा रहे या भूखा मरे ,
मुझे क्या?...
जैसी अमानुषिक सोच ने
आज जन-जीवन को
पंगु और अपाहिज कर
दिया है,
बिन बाती और तेल के
दिया कैसे
आसपास को
रोशन कर सकता है ?
क्या कभी यह सब
कभी मन में
ठहराव लाकर
सोच विचार किया है कभी ?
बस इसी कमी ने
आदमी का जीना दुश्वार किया है।
आज आदमी भटकता फिर रहा है।
स्वार्थ के सर्प ने सबको डस लिया है।

मन के भीतर
हद से ज्यादा होने
लगी है उथल-पुथल
फलत: आज
आदमी
बाहर भीतर से
हुआ है शिथिल
और डरा हुआ।
वह सोचने को हुआ है मजबूर !
कभी कभी जीवन क्यों
लगता है रुका हुआ !!
इस मनो व्यथा से
यदि आदमी से
बचना चाहता है
तो यह जरूरी है कि
वह संयमी बने,
धैर्य धन धारण करें।

१०/०१/२०२५.
कुछ सार्थक इस वरदान तुल्य जीवन में वरो।
यूं ही लक्ष्य हीन
नौका सा होकर
जीवन धारा में
बहते न  रहो ।
अरे! कभी तो
जीवन की नाव के
खेवैया बनने का प्रयास करो।
तुम बस अपने भीतर
स्वतंत्रता को खोजने की
दृढ़ संकल्प शक्ति भरो।
स्वयं पर भरोसा करो।
तुम स्व से संवाद रचाओ।
निजता का सम्मान करो।
अपने को जागृत करने के निमित्त सक्षम बनाओ।
स्वतंत्रता की अनुभूति
निज पर अंकुश लगाने पर होती है।
अपने जीवन की मूलभूल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
दूसरों पर आश्रित रहने से
यह कभी नहीं प्राप्त  होती है।
स्वतंत्रता की अनुभूति
स्वयं को संतुलित और जागरूक रखने से ही होती है।
वरना मन के भीतर निरंतर
बंधनों से बंधे होने की कसक
परतंत्र होने की प्रतीति शूल बनकर चुभती है।
फिर जीवन धारा अपने को
स्वतंत्र पथ पर कैसे ले जा पाएगी ?
यह क़दम क़दम पर रुकावटों से
जूझती और संघर्ष करती रहेगी।
यह जीवन सिद्धि को कैसे वरेगी ?
जीवन धारा कैसे निर्बाध आगे बढ़ेगी ?
१०/०१/२०२५.
जीवन में
सब को लाभ उठाना आना चाहिए ,
सबका भला होना चाहिए।
यह सब स्वत:
कभी होगा नहीं।
इस के लिए
सभी को
सही दिशा में
खुद को आगे बढ़ाना चाहिए।
छोटी-छोटी उपलब्धियों से ही
संतुष्ट नहीं रह जाना चाहिए।
बल्कि सतत् मेहनत करने की आदत
अपने ज़िंदगी में  
अपनानी चाहिए।
लाभ सबका भला करता है ,
यह जीवन में सुख का अहसास भरता है ,
बस अनुचित लाभ कमाना
समाज और देश दुनिया को
निर्धन करता है,
यह जीवन में
असंतोष तक भर सकता है।
सब को  लाभ होना ही चाहिए
परन्तु इसका कुछ अंश भी
समय समय पर
लोक कल्याण के हेतु
निवेश किया जाना चाहिए
ताकि समरसता और समानता का आदर्श
व्यक्ति व समाज में
सहिष्णुता का संस्पर्श करा सके ,
और लाभ
लोक भलाई के आयाम निर्मित कर
उज्ज्वल, उजास , ऊर्जा भरपूर होकर
जीवन धारा को आगे ही आगे बढ़ाता रहे।
जीवन सुख समृद्धि और सम्पन्नता की प्रतीति करा सके।
१०/०१/२०२५.
मुझे
वह हमेशा...
जो कोठे में बंदी जीवन
जी रही है
और
जो दिन में
अनगिनत बार बिकती है,
हर बार बिकने के साथ मरती है,
पल प्रतिपल सिसकती है
फिर भी
लोग कहते हैं
उसे इंगित कर ,
"मनमर्ज़ियां करती है।"
वह मुझे हमेशा से
अच्छी और सच्ची लगती है।
दुनिया बेवजह उस पर ताने कसती है।
जिसे नीचा दिखाने के लिए,
जिसे प्रताड़ित करने के लिए
दुनिया भर ने साज़िशों  को रचा है।
इस मंडी की निर्मिति की है,
जिसमें आदमजात की
सूरत और सीरत बसी है।

वह क्या कभी
किसी क्षण
भावावेगों में बहकर
सोचती है कि
मैं किस घड़ी
उस पत्थर से उल्फत कर बैठी ?
जिसने धोखे से बाज़ार दिया।
और इसके साथ साथ ही
सौगात में
पल पल , तिल तिल कर
भीतर ही भीतर
रिसने और सिसकने की
सज़ा दे डाली।
वह निर्मोही जीवन में
सुख भोगता होगा
और मैं उल्फत में कैद!
एक दुःख, पीड़ा, कष्ट और अजाब झेलती
उम्र कैदी बनी
रही हूं जीवन के
पिंजरे मे पड़ी हुई पछता।

कितना रीत चुकी हूं ,
इसका कोई हिसाब नहीं।
बहुतों के लिए आकर्षण रही हूं ,
भूली-बिसरी याद बनी हूं।
यह सोलह आने सच है कि
पल पल घुट घुट कर जीती हूं ,
दुनिया के लिए एकदम गई बीती हूं।

मेरा चाहने वाला ,
साथ ही बहकाने वाला
क्या कभी अपनी करनी पर
शर्मिंदा होता होगा ?
उसका भीतर
गुनाह का भार
समेटे व्यग्र और रोता होगा ?

शायद नहीं !
फिर वह ही क्यों
बनती रही है शिकार
मर्द के दंभ और दर्प की !

यह भी एक घिनौना सच है कि
आदिकाल से यह सिलसिला
चलता आया है।
जिसने बहुतों को भरमाया है
और कइयों को भटकाया है।
पता नहीं इस पर
कभी रोक लगेगी भी कि नहीं ?
यह सब सभ्य दुनिया के
अस्तित्व को झिंझोड़ पाएगा भी कि नहीं ?
उसके अंदर संवेदनशीलता
जगा भी पाएगा कि नहीं ?
यह जुल्मों सितम का कहर ढाता रहेगा।
सब कुछ को पत्थर बनाता रहेगा।
कफ़न
शब्दों का सतत्
ओढ़ा कर
विचार और व्यवहार पर।
जीवन की गुत्थी
भले ही
समझ
आए न आए ,
खुद को कतई
हताश न कर ।

ज़िंदगी
बढ़ती चली गई है
आगे और आगे ,
फिर हम ही क्यों
जीवन की कटु सच्चाई से भागें ?
क्यों न हम सब
जीवन धारा के संग भ्रमण करें !
क़दम दर क़दम आगे बढ़
निज जीवन शैली में सुधार करें !!
अपने भीतर निखार लाकर
निरंतर आगे बढ़ने के प्रयास करें !!!
आओ , आज सब इस बाबत विचार विमर्श करें।
इसके साथ साथ सब स्वयं के भीतर नया विश्वास भरें।
०६/१२/१९९९.
एक अदद कफ़न का
इस्तेमाल
कुर्ते पाजामा
बनवाने में
कर लिया तो क्या बुरा किया।
अगर कोई गुनाह कर लिया तो कर लिया।
वे देखते हो जिंदा इंसानों के मुर्दा जिस्म ,
जो मतवातर काम करते हुए
एक मशीन बने हैं।
घुट घुट कर जी रहे हैं।

वह देखते हो
अपनी आंखों के सामने
गूंगा बना शख़्श
जो घुट घुट कर जिया,
तिल तिल कर मर रहा ,
अंदर अंदर सुलग रहा।

वह कैसा शान्त नज़र आता है,
वह कितना उग्र और व्यग्र है,
वह भीतर से भरा बैठा है।
उसके अंदर का लावा बाहर आने दो।
उसे अभिव्यक्ति का मार्ग खोजने दो।

आज वह पढ़ा लिखा
बेरोजगारी का ठप्पा लगवाए है,
आगे बढ़ने के सपने भीतर संजोए हुए है।

पिता पुरखों की चांडालगिरी के धंधे में
आने को है विवश ,
एक नए पाजामे की
मिल्कियत का उम्मीदवार
भीतर से कितना अशांत है !!
महसूसो इसे !
सीखो ,इस जीवन की
विद्रूपता और क्रूरता को
कहीं गहरे तक महसूसने से !!
हमारे इर्द-गिर्द कितना
अज्ञान का अंधेरा पसरा हुआ है।
अभी भी हमें आगे बढ़ने के मौके तलाशने हैं।
इसी दौड़ धूप में सब लगे हुए हैं।
०६/१२/१९९९.
अचानक मेरे मनोमस्तिष्क में
कौंधा है एक ख्याल कि
क्या होगा
यदि यह जीवन
पूर्णतः मृत्युहीन हो जाए ?
मन ने तत्क्षण अविलम्ब उत्तर दिया
इस जीवन में बुझ ही जाएगा
आनंद का दिया।
जीवजगत निर्जीवता से
ज़िंदगी को ढ़ोता नज़र आएगा।
जीना साक्षात नर्क में रहने जैसा लगेगा।
सर्वस्व का आंतरिक विकास
जड़ से रुक जाएगा।
जीवन उत्तरोत्तर बोझिल होता जाएगा।
जीना दुश्वार हो जाएगा।
समस्त वैभव
अस्त व्यस्त ,‌ तहस नहस
बिखरा हुआ दिखाई देगा।
जीवंतता का अहसास तक लुप्त होगा।
जीवन में सर्वांग सुप्तावस्था की प्रतीति कराएगा।
मृत्युशैयाविहीन जीवन
भले ही
मृत्युहीनता का अहसास कराए ,
यह जीवन को निर्थकता से भर जाएगा।
जहां हर कोई त्रिशंकु होगा ,
अधर में लटका हुआ।
०८/०१/२०२५.
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