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Joginder Singh Dec 2024
कभी कभी
आदमी के विवेक का मर जाना ,
बात बात पर उसके द्वारा बहाने बनाना ,
सारी हदें पार करते हुए
अनैतिकता का बिगुल बजाना
क्या आदमी को है शोभता ?
इससे तो अच्छा है वह
शर्म महसूस करे ।
इधर उधर बेशर्मी से कहकहे न लगाता फिरे ।
जीवन धारा में बहते हुए
आदमी का सारी हदें पार कर जाना
रहा है उसका शुगल पुराना।
इसे अच्छे से समझता है यह ज़माना ।


कितना अच्छा हो ,
आदमी नैतिक मूल्यों के साथ खड़ा हो ।

नैतिकता के पथ पर
मतवातर
आदमी चलने का
सदा चाहवान रहे ।
वह जीवन पथ पर
चलते हुए सदैव
नैतिकता का आधार निर्मित करे।

नैतिक जीवन को अपनाकर
नीति चरित्र को श्रृंगार पाती है ।
अनैतिक आचरण करना
यह आज के प्रखर मानुष को
कतई शोभता नहीं है।
फिर भी उसे कोई शुभ चिंतक और सहृदय
रोकता क्यों नहीं है ?
इसके लिए भी साहस चाहिए ।
जो किसी के पास नहीं ,
बेशक धन बल और बाहुबल भले पास हो ,
पर यदि पास स्वाभिमान नहीं ,
तो जीवन में संचित सब कुछ व्यर्थ !
पता नहीं कब बना पाएगा आदमी स्वयं को समर्थ ?

यह सब आदमी के ज़मीर के
सो जाने से होता है घटित ।
इस असहज अवस्था में
सब अट्टहास लगा सकते हैं ।
वे जीवन को विद्रूप बना सकते हैं।
सब  ठहाके लगा सकते हैं,
पर नहीं सकते भूल से भी रो।
सब को यह पढ़ाया गया है ,
गहरे तक यह अहसास कराया गया है ,
...कि रोना बुजदिली है ,
और इस अहसास ने
उन्हें भीगी बिल्ली बना कर रख दिया है।
ऊपर ऊपर से वे शेर नज़र आते हैं,
भीतर तक वे घबराए हुए हैं।
इसके साथ ही भीतर तक
वे स्व निर्मित भ्रम और कुहासे से घिरे हैं ।
उनके जीवन में अस्पष्टता घर कर गई है।

आज ज़माने भर को , है भली भांति विदित
इन्सान और खुद की बुजदिली की बाबत !
इसलिए वे सब मिलकर उड़ाते हैं
अच्छों अच्छों का उपहास।
एक सच के खिलाफ़ बुनी साज़िश के तहत ।
उन्हें अपने बुजदिल होने का है क़दम क़दम पर अहसास।
फिर कैसे न उड़ाएं ?
...अच्छे ही नहीं बुरे और अपनो तक का उपहास।
वे हंसते हंसते, हंसाते हंसाते,समय को काट रहे हैं।
समय उन्हें धीरे धीरे निरर्थकता के अहसास से मार रहा है।
वे इस सच को देखते हैं, महसूस करते हैं,
मगर कहेंगे कुछ नहीं।
यार मार करने के तजुर्बे ने
उन्हें काइयां और चालाक बना दिया है।
बुजदिली के अहसास के साथ जीना सीखा दिया है।
२७/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
बहस
एक बिना ब्रेक की
गाड़ी है ,
यदि यह नियंत्रण से
कभी अचानक
हो जाए बाहर
तो दुर्घटना निश्चित है।
यह निश्चिंत जीवन में
अनिश्चितता का कर देती संचार।
यह संसार तक
लगने लगता सारहीन और व्यर्थ।

बहस
जीवन के प्रवाह को
कर देती है बाधित।
यह इन्सान को
घर व परिवार और समाज के
मोर्चे पर कर देती है तबाह।
अतः इस निगोड़ी
बहस से बचना
बेहद ज़रूरी है ,
इससे जीवन की सुरक्षार्थ
दूरी बनाए रखना
अपरिहार्य है।
क्या यह आज के तनाव भरे जीवन में
सभी को स्वीकार्य है ?
बहस कहीं गहरे तक करती है मार।
इससे बचना स्व विवेक पर निर्भर करता है।
वैसे यह सोलह आने सच है कि
समझदार मानुष इसमें उलझने से बचता है।
२५/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कहीं सुदूर खिला है पलाश।
कहे है सब से अपनी संभावना तलाश।
रह रह कर दे रहा हो यह सन्देश!
अपनी जड़ों से जुड़ ,जीवन में आगे बढ़!
हो सकता है कि
छोटे शहरों, कस्बों, गांवों में
बड़े दिल वाले,
उदार मानसिकता वाले
मानुष बसेरा करते हों
जो संभावना के स्वागतार्थ
सदैव रहते हों तत्पर।
वे हमेशा मुस्कान बनाए रखते हों,
और सार्थक जीवनचर्या से जुड़े हों।

यह भी संभव है कि
बड़े शहरों,कस्बों और गांवों में तंगदिल,
संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त मानुष हों,
जो स्वयं से
संभावना के आगमन को परे
धकेलते हुए
भीतर तक
जड़ता के अंदर धंसे हों।

अच्छा रहेगा कि
हम सब का जीवन
सकारात्मक सोच से
संचालित होता रहे।
हमारा इर्द गिर्द और परिवेश
सर्वस्व को
सुख सुविधा, समृद्धि और संपन्नता से
जुड़े रहकर ही आह्लादित हो!
जबकि हम व्यर्थ की भाग दौड़ को
जीवन में सुख का मूल समझ कर
स्वयं को नष्ट करने पर तुले हों।
जीवन को जटिल बना रहे हों।
खुद को थका रहे हों
और किसी हद तक
संभावना के आगमन को
अपने जीवन से मतवातर दूर करते हुए
हाशिए से बाहर धकेले जा रहे हों।

आओ हम सब इस
अराजकता के दौर में
अपना ठौर ठिकाना संभालें।
अपनी अपनी संभावना को तलाशें!
कुछ हद तक निज के जीवन को तराशें!!
२८/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कितना अच्छा हो
आदमी सदैव सच्चा बना रहे
वह जीवन में
अपने आदर्श के अनुरूप
स्वयं को उतार चढ़ाव के बीच ढालता रहे।

कितना अच्छा हो
अगर आदमी
अपना जीवन
सत्य और अहिंसा का
अनुसरण करता हुआ
जीवन जिंदादिली से गुजार पाए ,
अपनी चेतना को
शुचिता सम्पन्न बनाकर
दिव्यता के पथ प्रदर्शक के
रूप में बदल पाए।

कितना अच्छा हो
आदमी का चरित्र
जीवन जीने के साथ साथ
उत्तरोत्तर निखरता जाए।
पर आदमी तो आदमी ठहरा ,
उसमें गुण अवगुण ,
अच्छाई और बुराई का होना,
उतार चढ़ाव का आना
एकदम स्वाभाविक है,
बस अस्वाभाविक है तो
उसके प्रियजनों द्वारा सताया जाना ,
उसके चरित्र को कुरेदते रहना ,
हर पल इस ताक में रहना कि कभी तो
उसकी कमियां और कमजोरियां पता चलें
फिर कैसे नहीं उसे पटखनी दे देते ?
...और खोल देते सब के सामने उसकी जीवन की बही।

कितना अच्छा हो
आदमी की चाहतें पूरी होतीं रहें ,
उसे स्वार्थी परिवारजनों और मित्र मंडली की
आवश्यकता कभी नहीं रहे ,
बल्कि उसका जीवन
समय के प्रवाह के साथ साथ बहता रहे।

आदमी का चरित्र उत्तरोत्तर निखरे ,
ताकि स्वप्नों का इंद्रधनुष कभी न बिखरे ।
२८/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
अब
सच का सामना
करने से
लोग कतराते हैं।

सच के
सम्मुख पहुँच कर
उनके पर
जो कतरे जाते हैं।

अच्छे
खासे इज़्ज़तदर
बेपर्दा हो जाते हैं,
इसलिए
हम बहुधा
सच सुनकर
सकपका जाते हैं,
एक दूसरे की
बगलें झांकने लग जाते हैं।

बेशक
हम इतने भी
बेशर्म नहीं हैं,
कि जीवन भर
चिकने घड़े बने रहें।
हम भीतर ही भीतर
मतवातर कराहते रहें।

हमें
विदित है
भली भांति कि
कभी न कभी
सभी को
सच का सामना
करना ही पड़ेगा ,
तभी जीवन
स्वाभाविक गति से
गंतव्य पथ पर
आगे बढ़ पाएगा।
जीवन सुख से भरपूर हो जाएगा।
२८/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
बस हमने अब तक
जीवन में विवाद ही किया है ,
ढंग से अपना जीवन कहां जिया है ?
यह अच्छा है और वह बुरा है !
छोटी-छोटी बातों पर ही ध्यान देकर
खूब हल्ला गुल्ला करते हुए
जीवन में व्यर्थ ही शोरगुल किया है।
समय आ गया है कि हम परस्पर सहयोग करते हुए
अपनी समझ को सतत् बढ़ाएं ।
जीवन धारा में निरुद्देश्य न बहे जाएं ,
बल्कि समय रहते अपने समस्त विवाद सुलझाएं।
आओ आज हम सब मिलकर जीवन से संवाद रचाएं।

अब तक बेशक हम अपने अपने दायरे में सिमटे हुए ,
एक बंधनों से बंधा , पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से जकड़ा , जीवन जीने को ही मान रहे थे , जीवन यापन का तरीका।
इस जड़ता ने हम सबको कहीं का नहीं है छोड़ा।

अर्से से हम भटक रहे हैं, उठा-पटक करते हुए ,
करते रहे हैं सामाजिक ताने-बाने को नष्ट-भ्रष्ट अब तक।

आओ हम सब स्वयं पर अंकुश लगाएं।
समस्त विवादों को छोड़, परस्पर  संवाद रचाएं।
जीवन धारा में  कर्मठता का समावेश करते हुए ‌,
स्वयं को सार्थक जीवन की गरिमा का अहसास कराएं।
२७/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
मुफलिसी के दौर में
ज़िंदगी को
हंसते हंसते हुए जीना
हरदम मुस्कुराते रहना
छोटी छोटी बातों पर
खिलखिलाते हुए
मन को बहलाना
चौड़ा कर देता है सीना ।
ऐसे संघर्षों में
सकारात्मकता के साथ
जीवन को सार्थक दिशा में
आगे ही आगे बढ़ाना
जिजीविषा को दिखाता है।

आदमी का
उधड़ी पतलून को
सीकर पहनना,
फटी कमीज़ में
समय को काट लेना ,
मांग मांगकर
अपना पेट भर लेना,
मजदूरी मिले तो चंद दिनों के लिए
खुशी खुशी दिहाड़ियों को करना,
लैंप पोस्ट की रोशनी में
इधर-उधर से रद्दी हो चुके
अख़बार के पन्नों को जिज्ञासा से पढ़ना ,
उसके भीतर व्यापी जिजीविषा को दर्शाता है।

फिर क्यों अख़बार में
कभी कभी
आदमी के आत्मघात करने,
हत्या, लूटपाट, चोरी, बलात्कारी बनने
जैसी नकारात्मक खबरें
पढ़ने को मिलती हैं ?

आओ ,
आज हम अपने भीतर झांक कर
स्वयं और आसपास के हालात का
करें विश्लेषण
ताकि जीवन में
नकारात्मकता को
रोका जा सके,
जीवन धारा को स्वाभाविक परिणति तक
पहुंचाया जा सके,
उसे सकारात्मक सोच से जोड़कर
आगे बढ़ने को आतुर
मानवीय जिजीविषा से सज्जित किया जा सके।
यह जीवन प्राकृतिक रूप से गतिमान रह सकें ,
इसे अराजकता के दंश से बचाया जा सके।
२६/१२/२०२४.
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