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Joginder Singh Dec 2024
झूठ बोलने से पहले
थोड़ा थूक गटक गया
तो क्या बुरा किया ?
कम से कम
मैं एक क्षण के लिए
सच को तो जिया।

यह अलग बात रही--
जिसके खिलाफ
अपने इस सच का
पैंतरा फैंका था ,
वह अपनी अक्लमंदी से बरी हुआ,
मुझे अक्लबंद सिद्ध कर विजयी रहा।


सच्ची झूठी इस दुनिया में
आते हैं बेहिसाब उतार चढ़ाव
आदमी रखे एक अहम हिसाब--
किस राह पर है समय का बहाव ?
जिसने यह सीख लिया
उसने जीवन की सार्थकता को समझ लिया।
उसने ही जीवन को भरपूर शिद्दत से जिया।
और इस जीवन घट में आनंद भर लिया।
१६/०६/२०१७.
Joginder Singh Dec 2024
आतंक
आग सा बनकर
बाहर ही नहीं
भीतर भी बसता है ,
बशर्ते
आप उसे  
समय रहते
सकें पकड़
ताकि
शांति के
तमाम रास्ते
सदैव खुले रहें ।

आतंक
हमेशा
एक अप्रत्याशित
घटनाक्रम बनकर
जन गण में
भय और उत्तेजना भरकर
दिखाता रहा है
अपनी मौजूदगी का असर ।

पर
जीवन का
एक सच यह भी है कि
समय पर लिए गए निर्णय ,
किया गया
मानवीय जिजीविषा की खातिर संघर्ष ,
शासन-प्रशासन
और जनसाधारण का विवेक
आतंकी गतिविधियों को
कर देते हैं बेअसर ,
बल्कि
ये आतंकित करने वाले
दुस्साहसिक दुष्कृत्यों को
निरुत्साहित करने में रहते हैं सफल।
ये न केवल जीवन धारा में
अवरोध उत्पन्न करने से रोकते हैं,
अपितु विकास के पहियों को
सार्थक दिशा में मोड़ते हैं।
अंततः
कर्मठता के बल पर
आतंक के बदरंगों को
और ज्यादा फैलने से रोकते हैं।


दोस्त,
अब आतंक से मुक्ति की बाबत सोच ,
इससे तो कतई न डरा कर
बस समय समय पर
अपने भीतर व्याप्त उपद्रवी की
खबर जरूर नियमित अंतराल पर ले लिया कर ,
ताकि जीवन के इर्द-गिर्द
विष वृक्ष जमा न सकें
कभी भी अपनी जड़ों को ।

और
किसी आंधी तूफ़ान के बगैर
मानसजात को
सुरक्षा का अहसास कराने वाला
जीवन का वटवृक्ष
हम सब का संबल बना रहे ,
यह टिका रहे , कभी न उखड़े !
न ही कभी कोई
दुनिया भर का
गांव ,शहर , कस्बा,देश , विदेश उजड़े।
न ही किसी को
निर्वासित होकर
अपना घर बार छोड़ने को
बाधित होना पड़े ।
१६/०६/२००७.
Joginder Singh Dec 2024
दैत्यों से अकेली
लड़ सकती है देवी ।
उसे न समझो कमज़ोर।
जब सभी ओर से
दैत्य उस पर
अपनी क्रूरता
प्रदर्शित करते से
टूट पड़ें ,
तब क्या वह बिना संघर्ष किए
आत्मसमपर्ण  कर दे ?
आप ही बताइए
क्या वह अबला कहलाती रहे ?
अन्याय सहती रहे ?
भीतर तक भयभीत रहे ?
दैत्यों की ताकत से
थर थर थर्राहट लिए
रहे कांपती ... थर थर
बाहर भीतर तक जाए डर ।
और समर्पण कर दे
निज अस्तित्व को
अत्याचारियों के सम्मुख ।
वह भी तो स्वाभिमानिनी है !
अपने हित अहित के बारे में
कर सकती है सोच विचार ,
चिंतन मनन और मंथन तक।
वह कर ले अपनी जीवन धारा को मैली !
कलंकित कर ले अपना उज्ज्वल वर्तमान!
फिर कैसे रह पाएगा सुरक्षित आत्म सम्मान ?

वह अबला नहीं है।
भीरू मानसिकता ने
उसे वर्जनाओं की बेड़ियों में जकड़
कमज़ोर दिखाने की साजिशें रची हैं।
आज वह
अपने इर्द गिर्द व्याप्त
दैत्यों को
समाप्त करने में है
सक्षम और समर्थ।
बिना संघर्ष जीवनयापन करना व्यर्थ !
इसलिए वे
सतत जीवन में
कर रही हैं
संघर्ष ,
जीवन में कई कई मोर्चों पर जूझती हुईं ।
वे चाहतीं हैं जीवन में उत्कर्ष!!
वे सिद्ध करना चाहतीं हैं  स्वयं को उत्कृष्ट!!
उनकी जीवन दृष्टि है आज स्पष्ट!!
भले ही यह क्षणिक जीवन जाए बिखर ।
यह क्षण भंगुर तन और मन भी
चल पड़े बिखराव की राह पर !

देवी का आदिकालीन संघर्ष
सदैव चलता रहता है सतत!
बगैर परवाह किए विघ्न और बाधाओं के!
प्रगति पथ पर बढ़ते जीवनोत्कर्ष के दौर में ,
रक्त बीज सरीखे दैत्यों का
जन्मते रहना
एकदम प्राकृतिक ,
सहज स्वाभाविक है।
यह दैवीय संघर्ष युग युग से जारी है।
१६/०६/२००७.
Joginder Singh Dec 2024
जब-जब युग
युगल गीत गुनगुनाना
चाहता है
लेकर अपने संग
जनता जनार्दन की उमंग तरंग ,
तब तब
मन का
बावरा पंछी
उन्मुक्त गगन का
ओर छोर
पाना चाहता है !
पर...
वह उड़ नहीं पाता है
और अपने को भीतर तक
भग्न पाता है।

और
यह मसखरा
उन्हें  उनकी  
नियति व बेबसी की
प्रतीति कराने के निमित्त
प्रतिक्रिया वश अकेले ही
शुगलगीत
गाता है,
मतवातर
अपने में डूबना
चाहता है !!

पर
कोई उसे
अपने में डूबने तो दे!
अपने अंतर्करण को
ढूंढने तो दे !
कोई उसे
नख से शिख तक
प्रदूषित न करे !!

२५/०४/२०१०.
Joginder Singh Dec 2024
आजकल  
ठंड का ज़ोर है
और
काया होती जा रही
कमज़ोर है।

मैं सर्दी में
गर्मी की बाबत
सोच रहा हूँ ।
हीट कनवर्टर
दे रहा है गर्म हवा की सौगात!
यही गर्म हवा
गर्मी में
देती है तन और मन को झुलसा।
उस समय सोचता था
गर्मी ले ले जल्दी से विदा ,
सर्दी आए तो बस इस लू से राहत मिले,
धूल और मिट्टी घट्टे से छुटकारा मिले।

अब सर्दी का मौसम है,
दिन में धूप का मज़ा है
और रात की ठिठुरन देती लगती अब  सज़ा है।
धुंध का आगाज़ जब होता है,
पहले पहल सब कुछ अच्छा लगता है,
फिर यकायक
उदासी मन पर
छा जाती है,
यह अपना घर
देह में बनाती जाती है।
गर्मी के इंतजार में
सर्दी बीतने की चाहत मन में बढ़ जाती है।

मुझे गर्म हवाओं का है इंतज़ार
मैं मिराज देखना चाहता हूँ ,
जब तपती सड़क
दूर कहीं
पानी होने की प्रतीति कराती है,
पास जाने पर  
पानी से दूरी  बढ़ती जाती है।
अपने हिस्से तो
बस
मृगतृष्णा ही आती है।
यह जीवन
इच्छाओं की
मृग मरीचिका से
जूझते जूझते रहा है बीत ।
मन के भीतर बढ़ती जा रही है खीझ।

१४/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
तन समर्पण,
मन समर्पण,
धन समर्पण,
सर्वस्व समर्पण,
वह भी  
अहंकार को
पालित पोषित करने के निमित्त
फिर कैसे रहेगा शांत चित्त ?
आप करेंगे क्या कभी
अंधाधुंध अंध श्रद्धा को
समर्पित होने का समर्थन ?
समर्पण
होना ‌चाहिए , वह भी
जीवन में गुणवत्ता बढ़ाने के निमित्त।
जिससे सधे
सभी के पुरुषार्थी बनने से
जुड़े सर्वस्व
समर्पण के हित।

अहम् को समर्पण
अहंकार बढ़ाता है ,
क्यों नहीं मानस अपने को
पूर्ण रूपेण जीवन की गरिमा के लिए
समर्पित कर पाता है ?
वह अपने को बिखराव की राह पर
क्यों ले जाना चाहता है ?
वह अपने स्व पर नियंत्रण
क्यों नहीं रख पाता है ?
आजकल  ऐसे यक्ष प्रश्नों से
आज का आदमी
क्यों  जूझना नहीं चाहता है ?
वह स्वार्थ से ऊपर उठकर
क्यों नहीं आत्मविकास के
पथ को अपनाता है ?
१४/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
Sometimes
natural intelligence
behaves like AI
in emergency only!
It brings a break down during sleep
to take care of diseased family member
or
to watch at midnight
surroundings !
It is ok .
You can keep continue to 💤 💤 💤 sleep!
Now you can enjoy your sound sleep!
Natural intelligence wishes sometimes ....very....very....good...and.....happy good morning !! 🌄 🌞!!
Ha! Ha !! Ha !!!
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