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Joginder Singh Nov 2024
When pressure compels a person to resign.
When such happens in surroundings.
It is not a healthy signal for the human society .
It clearly indicates
that the nexus between syndicate  and state
has an upper hand in public life.
The corruption is flourishing day by day.
If all such activities increase,
that means human existence is at stake.
Joginder Singh Nov 2024
आदमी
जो नहीं है,
वह वैसा होने का
दिखावा करता है ,
बस खुद से  
छलावा करता है।
इस सब को
मैं नहीं समझता हूं अच्छा।
क्या ऐसा करने से
वह रह पाएगा सच्चा ?
यह तो है बस है
अपने आप से बोलना झूठ।
कदम कदम पर पीना
ज़हर और अपमान की घूट।
साथ ही है यह
जाने अनजाने
अपने हाथों ही
अपने पर कतरना भी है।
स्वयं को
अनुभूतियों के आसमान में
परवाज़ भरने से रोकना भी है।


आज
आदमी ने
पाल ली है
यह खुशफहमी,
कोई उसकी असलियत
कभी जानेगा नहीं।
पर
नहीं जानता वह बेचारा।
दूसरे भी
उसकी तरह चेहरा छुपाए हैं,
एक मुखौटा चेहरे पर लगाए हैं।
उनसे चेहरा छुपाना मुश्किल है,
नहीं समझता इसे, कम अक्ल है।
सब यहां, मनोरंजन कर रहा है, जैसा कुछ सोच
हरदम मुस्कुराते रहते हैं!
दुनिया के हमाम में नंगे बने रहते हैं!!


अब आदमी
कतई न करे कोई लोक दिखावा।
खुद को च
छलने से अच्छा है ,
वह देखा करें अब ,
समय की धूप में
अपना परछावा!

आजकल
अपना साया ही बेहतर है,
कम से कम
सुख दुःख में साथ देता है,
तपती धूप के दौर में
आदमी जैसा है, उसे वैसे ही दिखाया करता है ।

आदमी जैसे ही
अपना परछावा भूल
आईने से गुफ्तगू करता है,
आईने में अपना मोहक रूप देख
होता है प्रसन्न।
आईने को एक शरारत सूझी है
और वह
आदमी को
उसके रंग ढंग दिखला ,
उसे सच से अवगत करा
कर देता है सन्न !
ऐसे समय में
आदमी मतवातर
आईने  से शर्माता  है।
वह बीच रास्ते
हक्का-बक्का सा
आता है नज़र।
यही है आदमी की वास्तविकता का मंज़र।


आदमी, जो नहीं है, वह वैसा होने का
दिखावा आखिरकार क्यों करता है?
अगर उसे होना पड़ता है अपमानित, इस वज़ह से ;
तो आज का शातिर आदमी
झट से मांग लेता है माफी
और इसे अपनी भूल ठहरा देता है।

जब कभी समय देवता
उसे अचानक बस यूं ही
दिखा देते हैं ,हकीकत का आईना,
तो आदमी बाहर भीतर तक
कर लेता है मौन धारण।
ऐसा आदमी नहीं होता कतई साधारण ।
वह कभी किसी की पकड़ में नहीं आता है,
बल्कि जनसाधारण के बीच , वह नीच!
पहुंचा हुआ आदमी कहलाता है !
सभी के लिए आदर का पात्र
यानी कि आदरणीय बन जाता है।
और एक दिन समाज और सरकार से पुरस्कृत हो जाता है। ऐसे में सच
सचमुच ही तिरस्कृत हो जाता है ।

२२/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
चलो
सीधी डगर
न करो तुम
अगर मगर।
कौन सच्चा है
और
कौन है झूठा ?
इस बाबत लड़ो न  अब ,
ढूंढो ,खोजो अपना सच ।
सच बने
आज
एक सुरक्षा कवच।
इस के निमित्त
करो तुम और सभी मिलकर
नियमित प्रयास।

करो न अब
कोई बहाना,
समय सरिता में
सभी को है नहाना।


धोकर अपना मैल मन का ,
तन और मन भी
उज्ज्वल करना है,
लेकर साथ सभी का
हमें अपने लक्ष्यों को वरना है।
इस जगत में लगा रहता
जीना और मरना है,
हम सभी को
अपने अपने भीतर
उजास भरना है।
शुचिता का संस्पर्श करना है।
आज सभी को कर्मठ बनना है।
समय के संग संग चलना है।
२७/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
अचानक एक दिन
जब मैं था अधिक परेशान
समय ने कहा था मुझे कुछ
तू बना ना रहे
और अधिक समय तक तुच्छ
इसीलिए तुम्हें बताना चाहता कुछ
जीवन से निस्सृत हुए सच ।
उस समय
समय ने कहा था मुझे,
" यूं ही ना खड़ा रह देर तक ,एक जगह ।
तुम चलोगे मेरे साथ तो यकीनन बनोगे अकलमंद ।
यूं ही एक जगह रुके रहे तो बनोगे तुम अकल बंद ।
फिर तुम कैसे आगे बढ़ोगे?
सपनों को कैसे पूरा करोगे ?

मेरे साथ-साथ चल , अपने को भीतर तक बदल।
मेरे साथ चलते हुए ,मतवातर आगे बढ़ते हुए,
बेशक तुम जाओ थक , चलते जाओगे लगातार,
तो कैसे नहीं , परिवर्तन की धारा से जा जुड़ोगे ?अफसोसजनक अहसासों से फिर न कभी डरोगे ।"

समय ने अचानक संवाद रचाकर
खोल दिया था अपना रहस्य ,मेरे सम्मुख।
आदमी के ख़्यालात को ,
अपने भीतर का हिस्सा बनाते हुए
अचानक मेरी आंखें दीं थीं खोल।
अनायास अस्तित्व को बना दिया अनमोल।
और दिया था
अपने भीतर व्याप्त समन्दर में से मोती निकाल तोल ।
यह सब हुआ था कि
अकस्मात
मुझे सच और झूठ की
अहमियत का हुआ अहसास,
खुद को मैंने हल्का महसूस किया।
अब मैं खुश था कि
चलो ,समय से बतियाने का मौका तो मिला।

०५/०२/२०१२.
Joginder Singh Nov 2024
जैसे-जैसे
जीवन में
उत्तरोत्तर
बढ़ रही है समझ,
वैसे-वैसे
अपनी नासमझी पर
होता है
बेचारगी का
अहसास ।

सच कहूं ,
आदमी
कभी-कभी
रोना चाहता है ,
पर रो नहीं पाता है ।
वह अकेले में
नितांत अपने लिए
एक शरण स्थली
निर्मित करना चाहता है ।
जहां वह पछता सकें ,
जीवन की बाबत
चिंतन कर सके ,
अपने भीतर
साहस भर सकें ,
ताकि
जीवन में संघर्ष
कर सके।

शुक्र है कि
कभी-कभी
आदमी को
अपने ही घर में
एक उजड़ा कोना
नज़र आता है!
जहां आदमी
अपना ज़्यादा
समय बिताता है ।

शुक्र है कि
जीवन की
इस आपाधापी में
वह कोना अभी बचा है,
जहां
अपने होने का अहसास
जिंदगी की डोर से
टंगा है,
हर कोई
इस डोर से
बंधा है ।
शरण स्थली के
इस कोने में ही
सब सधा है।

आजकल यह कोना
मेरी शरण स्थली है,
और कर्म स्थली भी,
जहां बाहरी दुनिया से दूर
आदमी अपने लिए कुछ समय
निकाल सकता है,
जीवन की बाबत
सोच विचार कर सकता है,
स्वयं से संवाद रचा सकता है ।

२२/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
बच्चो !
नकल यदि तुम करोगे ,
नकली तुम खुद को करोगे।


देता हूं यदि मैं तुम्हें
असलियत से
कोसों दूर
कभी
नकली प्यार दुलार!
तुम्हें लुभाने की खातिर
मतलब की चाशनी से सराबोर
चमक दमक के आवरण से
लिपटा कोई उपहार
तो समझिए
मैंने दिया आपको धोखा।
छीन लिया है तुमसे कुछ करने का मौका।


बच्चो!
कभी न कभी करता है
सौ सौ पर्दों में छुपा झूठ
स्वयं को प्रकट
तब छल कपट
स्वत:
होते उजागर ।
ऐसे में
पहुंचता मन को दुःख।
सामने आ जाता है यकायक ,
नकली उपहार मिलने का सच।
कैसे न मन को पहुंचे ठेस ?
कैसे ना मन में पैदा हो
कलह और क्लेश ?
इस समय
आदमी ही नहीं,
आदमियत तक
लगने लगती
धन लोलुप सौदागर ।


बच्चो !
यदि नकल तुम करोगे।
नकली तुम बनोगे।

तुम मां-बाप ,
देश और समाज को डसोगे ।

आज
तुम खुद से
करो ये
वायदे कि
कभी भी
भूल से भी
नकल नहीं करोगे ।
जिंदगी में  नकली
कभी न बनोगे ।
सच के पथ पर
हमेशा चलोगे।
जीवन में मतवातर
आगे बढ़ोगे।
कभी आपस में नहीं लड़ोगे
और परस्पर गले मिलोगे।

०१/०३/२०१३.
परीक्षा में नकल करने की प्रवृत्ति को रोकने और इस के दुष्परिणामों से बचने,बचाने के नजरिए से लिखी गई कविता।
Joginder Singh Nov 2024
देश
अलगाव
नहीं चाहता ।

देश
विकास को
वरना है चाहता ।


कोई कोई
घटना दुर्घटना
गले की फांस बनकर
देश को तकलीफ़ है देती।
करने लगती
उसके विश्वास पर चोट ,
हर एक चेहरे पर
नज़र आने लगती खोट ।


देश
अलगाव
नहीं चाहता ।


देश
दुराव छिपाव
कतई नहीं चाहता।


काश !
देश के हर बाशिंदे का चेहरा
पाक साफ़ रह पाता ।
फिर कैसे नहीं
हरेक जीवात्मा
प्रसन्नता को वर पाती?
अपनी जड़ों और मंसूबों को समझ पाती ?


काश !
सबने देश की आकांक्षा,
अंतर्व्यथा को समझा होता
तो अलगाव का बखेड़ा
खड़ा ही न होता ।
देश में संतुलित विकास  होता ।

२६/०२/२०१७.
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