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Joginder Singh Nov 2024
टटपुंजिया हूँ।
क्यों टटोलते हो ?
सारी जिंदगी निठल्ला रहा।
अब ढोल की पोल खोलते हो!
मेरे मुंह पर
सच क्यों नहीं कह देते ?
कह ही दो
मन में रखी बात।
अवहेलना के दंश
सहता आया हूं।

एक बार फिर
दर्द सह जाऊंगा।
काश! तुम मेरी व्यथा को
समझो तो सही।
यदि ऐसा हुआ तो निस्संदेह
मैं जिंदगी की दुश्वारियों को सह जाऊंगा।
दुश्मनों से लोहा ले पाऊंगा।
सामने खड़ी हार को
विजय के  उन्माद में बदल जाऊंगा ।
  २६/०७/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
सोच जरा।
यदि
नफरत नफे का सौदा होती,
तो
सारी दुनिया
इसे ढो रही होती ।
सोच जरा!
फुर्सत सुख नहीं दुःख देती है ,
फुर्सत
आफत की पुड़िया है,
जिससे पैदा होती गड़बड़ियां हैं ।
सोच जरा !रस का पान कर रहा भंवरा ,
रसिक बना नहीं कि जीवन संवरा ।
सच है रसहीनता जीवन की खुशियां नष्ट करती ।
रस का  ह्रास हुआ नहीं कि
नीरसता भीतर डर पैदा करने लगती।
सोच जरा !
तकदीर भरोसे बैठा रहकर,
आदमी दर-दर भटकता सर्वस्व गंवाकर ।
तकदीर बनाने की खातिर ,
अपना सब सुख चैन भूलाकर ।
दिन-रात परिश्रमी बनना पड़ता ,
सोच जरा !
बस !सोच जरा सा !!
कर्म कर ढेर सारा,
नहीं फिरेगा मारा मारा ।
भीतर रहती सोच
अक्सर यह कहती है ।
'बाहर पलती सोच 'से
यह लड़ना चाहती है ।
यह एक द्वंद्व कथा रचना चाहती है ।
यह अंतर्द्वंद्व व्यथा से बचाना ,जो चाहती है !!
२६/०७/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
श्री मान
रख रहा हूं आपके सम्मुख सत्ता का चरित्र कि
सत्ता सताती भर है ।
दीन,हीन,शोषित,वंचित,
सब होते रहे हैं इसके अत्याचार का शिकार ।

सत्ता का चरित्र
बेझिझक, बेहिचक मौत बांटना है ,
चूंकि उसने व्यवस्था को साधना है।

सत्ता की दृष्टि में
क्रूरता जरूरी है,
इस बिन व्यवस्था पर पकड़ अधूरी है।
जिस सत्ता पक्ष ने
व्यवस्था नियंत्रण के मामले में
नरमी दिखलाई है, उसने सदैव मुँह की खाई है।
अतः यह कहना मुनासिब है,जो क्रूर है,वही साहिब है,
हरेक नरमदिल वाला अपना भाई है,
जिससे उस के घर बाहर की व्यवस्था
लगातार चरमराई है,
वज़ह साफ़ है,
ऐसी अवस्था में चमचों, चाटुकारों की बन आई है।
यदि शासक को अच्छे से प्रशासन चलाना है  
तो लुच्चों,लफंगों,बदमाशों,अपराधियों पर
लगाम कसनी अनिवार्य हो जाती है।
यदि दबंगों के भीतर सत्ता का डर कायम रहेगा
तभी सभी से
ढंग से काम लिया जाएगा,
थोड़ी नरमी दिखाने पर तो कोई भी सिर पर चढ़ जाएगा।
क्रूर किस्म का आदमी,
जो देखने में कठोर लगे,बेशक वह नरमदिल और सहृदय हो,सुव्यवस्थित तरीके से राजकाज चला पाता है।

सत्ता डर पैदा करती है।
यह अनुशासन के नाम पर
सब को एक रखती है।
यह निरंकुशता से नहीं चल सकती,
अतः अंकुश अनिवार्य है।
बिना अंकुश
व्यक्ति
सत्ता में होने के बावजूद
अपना सिक्का चला नहीं पाता।
अपना रंग जमा नहीं पाता।
श्री मान,
सत्ता केवल साधनहीन को तंग करती है।
मायाधारी के सामने
तो सत्ता खुद ही नरमदिल बन जाती है,
वह कुछ भी कर सकती है।
सत्ता का चरित्र विचित्र है ,
वह सदा ,सर्वदा शोषकों का साथ देती आई है
और वंचितों को बलि का बकरा समझती आई है।
वह शोषकों की परम मित्र है।
इन से तालमेल बना कर सत्ता शासन निर्मित करती  है। वंचितों को यह उस हद तक प्रताड़ित करती है,
जब तक वह घुटने नहीं टेकते।
सत्ता अपनी जिद्दी प्रवृत्ति के कारण बनी रहती है,
बेशक सत्ता को
शराफत का कोट पहन कर
अपनी बात जबरिया मनवानी पड़े,
सत्ता अड़ जाए,तो जिद्दी को भी हार माननी पड़ती है।

यही विचित्र चरित्र सत्ता का है।
यह जैसे को तैसा की नीति पर चलती है,
यह अपना विजय रथ
नरमी , गरमी,बेशर्मी से आगे बढ़ाती है।
यह चोरी सीनाज़ोरी के बल पर
चुपके-चुपके सिंहासन पर आसीन हो जाती है।
Joginder Singh Nov 2024
मैं उन्नीस मार्च को
स्कूल में रसोई घर बंद कर
लौट आया था अपने घर ।
इस सोच के साथ
कि बीस मार्च को पंजाब बंद के बाद
लौटूंगा स्कूल।

इक्कीस, मार्च को स्कूल वापसी के साथ , सालाना नतीजा तैयार करने के लिए
अपने सहयोगियों से करूंगा बात
और सालाना नतीजा चौबीस
मार्च तक कर लूंगा तैयार‌।


पर! अफसोस !!स्कूल में हो गईं
असमय कोरोना काल की  छुट्टियां ही छुट्टियां ।
बाइस मार्च को लग गया जनता कर्फ्यू ।
पच्चीस मार्च से पहला लॉकडाउन ।
फिर एक एक करके पांच बार लॉकडाउन लगे।
लॉकडाउन खुलने के बाद
स्कूल पहुंचा तो अचानक
खबर मिली स्कूल की आया से
कि छुट्टियों के दौरान
एक बिल्ली का  बच्चा (बलूंगड़ा)
उन्नीस मार्च को
स्कूल बंद करते समय
स्कूल के रसोई घर में हो गया था
मानवीय चूक और अपनी ही गलती से
स्कूल के रसोई घर में कैद।
यह सुनकर मुझे धक्का लगा ।
मैं भीतर तक हो गया शोकाकुल‌ ,
सचमुच था व्याकुल ।
एक-एक करके मेरी आंखों के सामने
स्कूल की रसोई में बिल्ली  के बच्चे का बंद होना,
पंजाब बंद का होना ,
जनता कर्फ्यू का लगना ,
और लंबे समय तक लॉकडाउन का लगना,
और बहुत कुछ
आंखों के आगे दृश्यमान  हो गया।
मैं व्याकुल हो गया।
सोच रहा था यह क्या हो गया ?
मेरा जमीर
कहां गया था सो ?
मैं क्यों न पड़ा रो??
सच !मैं एक भारी वजन को भीतर तक  हो रहा था।
बेचारी बिल्ली लॉकडाउन का हो गई थी शिकार।
मैं रहा था खुद को धिक्कार।
उसके मर जाने के कारण ,मैं खुद को दोषी मान रहा था ।
आया बहन जी मुझे कह रही थीं,
सर जी,बहुत बुरा हुआ ।
कई दिनों के बाद
बिल्ली के क्षतिग्रस्त शव को बाहर निकाला गया
तो बड़ी तीखी बदबू आ रही थी।
सच मुझे तो उल्टी आने को हुई थी।
घर जब मैं आई
तो बड़ी देर तक
मृत बिल्ली की तस्वीर
आंखों के आगे नाचती रही
यही नहीं ,कई दिनों तक
वह बिल्ली रह रहकर मेरे सपनों में आती रही।
सर ,सचमुच बड़ी अभागी बिल्ली थी।
अब आगे और क्या कहूं?
यह सब सुन मैं चुप रहा।
भीतर तक कराह रहा था।
उस दिन एक जून था।
मेरी आंखों के आगे तैर रहा खून ही खून था।
दिल के अंदर आक्रोश था।
कुछ हद तक डरा हुआ था, पछतावा मेरे भीतर भरा था ।
मुझे लगा
मैं भी दुनिया के विशाल रसोई घर में
एक बिल्ली की मानिंद हूं कैद ।
क्या कोरोना के इस दौर में
मेरा भी अंत हो जाएगा ?
कोरोना का यह चक्रव्यूह
कब समाप्ति की ओर बढ़ेगा ?
इंसान रुकी हुई प्रगति के दौर में
फिर कब से नया आगाज करेगा।
हां ,कुछ समय तो प्राणी जगत बिन आई मौत मरेगा।
पता नहीं,
मेरी मृत्यु का समाचार,
कभी मेरे दायरे से बाहर,
निकल पाएगा या नहीं निकल पाएगा ।
क्या मेरा हासिल भी,
और साथ ही सर्वस्व
मिट्टी में मिल जाएगा ।
मृत्यु का पंजीकरण भी
बुहान पीड़ितों की तरह
मृतकों के पंजीकरण रजिस्टर में
मेरा नाम भी दर्ज होने से रह जाएगा ।
लगता है यह दुखांत मुझे प्रेत बनाएगा ।
मरने के बाद भी मुझे धरा पर भटकाएगा।
Joginder Singh Nov 2024
जनाब! बुरा मत मानिएगा।
मारने की ग़र्ज से छतरी नहीं तानिएगा।

बुरा मानने का दौर चला गया ।
पता नहीं ,यह शोर कब थमेगा?

बुरा! बुरा !! बुरा !!!
आजकल हो गया है ।
हमारी सभ्यता का धुरा।

बुरा देखते-देखते
चुप रह जाने की आदत ने
हमें जीती जागती बुराई को
अनदेखा करना सिखा दिया है!
हमें बुराई का पुतला बना दिया है!!

पता नहीं कब राम आएंगे ?
अपने संगी साथियों के संग
बुराई का दहन करने का बीड़ा उठाएंगे।
भारत को राम राज्य के समान बनाएंगे ।
Joginder Singh Nov 2024
सच है!
जब जब
भीतर
ढेर सा दर्द
इक्ट्ठा होता है,
तब तब
जीवन की मरुभूमि में  
अचानक
एकदम अप्रत्याशित
कैक्टस उगता है।
जहां पर
रेत का समन्दर हो,
वहां कैक्टस का उगना।
अच्छा लगता है।

मुझे विदित नहीं था कि
ढेर सारा दुःख, दर्द
तुम्हारे भीतर भरा होगा।


और एक दिन
यह बाहर छलकेगा
कैक्टस के खिले फूल बनकर,
जो जीवन में रह जाएगा
ऊबड़-खाबड़ मरूभूमि का होकर।

यह कतई ठीक नहीं,
हम बिना लड़े और डटे
जीवन रण में
मरूभूमि में
जीवन बसर करने से
निसृत दर्दके आगे
घुटने टेक दें,  
मान लें  हार,यह नहीं हमें स्वीकार।


क्यों न हम!
इस दर्द को  
भूल जाने का
करें नाटक ।

और
कैक्टस सरीखे होकर
जीवन की बगिया में
फूल खिलाएं!
जीवन धारा के संग
आगे बढ़ते जाएं !!
थोड़ा सा
अपने अभावों को भूलकर
जी भरकर खिलखिलाएं!

सच है!
कैक्टस पर फूल भी खिलते हैं।
जीवन की मरूभूमि में
मुसाफ़िर
अपने दुःख,दर्द,तकलीफें
अंदर ही अंदर समेटे
सुदूर रेगिस्तान में
यात्राएं करते हैं
नखलिस्तान खोजने ‌के लिए।
जीवन में मृग मरीचिका और
अपनी तृष्णा, वितृष्णा को
शांत करने के लिए।
कैक्टस के खिले फूल
खोजने के निमित्त,
ताकि शांत रहे चित्त।
कैक्टस पर खिले फूल
मुरझाए कुम्हलाए मानव चित्त को
कर दिया करते हैं आह्लादित,
आनंदित, प्रफुल्लित, मुदित, हर्षित।
Joginder Singh Nov 2024
I want to learn endless lessons from the listening.
The sounds of the surroundings inspire me to connect with the sensitivity of the living beings and also non living beings.
These days I am not able to hear the sounds of life which is closely associated with my existence.
And as a natural result,due to hearing loss, it haunts me.
I am now almost  helpless and  starts feeling the undetected sounds of the mind .
These sounds teach me, how to make life full of happiness and kindness.
So,these days,I am engaged myself to listen and learn endless lessons from the life and the time.
My expiry date is very near,and I am listening the sounds of the life to clear my doubts regarding the fear of the death as well as rebirth,dear..!
In spite of the lack of the listening power ,I am waiting for my last hours of the life with a tearful eyes and fearful mind.
Oh !I am astonished to hear the foot steps of the life during  waiting for the death hours.

All of sudden the Life assured me that she is granting me a bonus chance to listen and learn lessons from the life. Now I am happy with the presence of the sounds.
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