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Joginder Singh Nov 2024
I want to learn endless lessons from the listening.
The sounds of the surroundings inspire me to connect with the sensitivity of the living beings and also non living beings.
These days I am not able to hear the sounds of life which is closely associated with my existence.
And as a natural result,due to hearing loss, it haunts me.
I am now almost  helpless and  starts feeling the undetected sounds of the mind .
These sounds teach me, how to make life full of happiness and kindness.
So,these days,I am engaged myself to listen and learn endless lessons from the life and the time.
My expiry date is very near,and I am listening the sounds of the life to clear my doubts regarding the fear of the death as well as rebirth,dear..!
In spite of the lack of the listening power ,I am waiting for my last hours of the life with a tearful eyes and fearful mind.
Oh !I am astonished to hear the foot steps of the life during  waiting for the death hours.

All of sudden the Life assured me that she is granting me a bonus chance to listen and learn lessons from the life. Now I am happy with the presence of the sounds.
Joginder Singh Nov 2024
शब्द
हमारे मित्र हैं।
ये हैं सक्षम ,
संवेदना को बेहतर बनाने में।
ये रखते
हरदम हम पर पैनी नज़र,  
मन में उपजे भावों को,
  परिमार्जित करते हुए।
ये क़दम क़दम पर
बनते हमारे रक्षक ,
जोड़ हमें जीवन के धरातल से ।
ये मन में जो कुछ भी चलता है,
उसकी पल पल की ख़बर रखते हैं,
साथ ही हमें प्रखर बनाते हैं।


अब मैं
एक काम की बात
बताना चाहता हूँ।
शब्द यदि जिंदा हैं
तो हम अस्तित्व मान हैं,
ये हमारा स्वाभिमान हैं।
  
जब शब्द रूठ जाते हैं,
हम ठूंठ सरीखे बन जाते हैं।
शब्द ब्रह्म की
यदि हम उपासना करें,
कुछ समय निकाल कर ,
इनकी साधना करें ,
तो  ये अनुभूति के शिखरों का
दर्शन कराते हैं,
हमें सतत परिवर्तित करते जाते हैं।

शब्द
हमें मिली हुईं
प्रकृति प्रदत्त शक्तियां हैं,
जो अभिव्यक्ति की खातिर  
सदैव जीवन धारा को जीवन्त बनाए रखतीं हैं।
आओ,  
आज हम इनकी उपासना करें।
ये देव विग्रहों से कम नहीं,
इनकी साधना से बुद्धि होती प्रखर,
अनुभव,जैसे जैसे मिलते जाते,
वे अंतर्मन में विराजते जाते,
भीतर उजास फैलाते जाते।
अपने शब्दों को  
अपशब्दों में कतई न बदलो।
यदि बदलना ही है,
तो खुद को बदलो ,
हमारी सोच बदल जाएगी,
हमें जीवन लक्ष्य के निकट लेती जाएगी।
आओ, बंधुवर,आओ,
आज
शब्दों में निहित
अर्थों के जादू से
स्वयं को परिचित कराया जाए।
और ज्यादा स्व सम्मोहन में जाने से
खुद को बचाया जाए।
पल प्रति पल
शब्दों की उपासना में
अपना ध्यान लगाया जाए
और जीवन को
उज्ज्वल  बनाया जाए,
अवगुणों को
आदत बनने से रोका जाए
ताकि आसपास
सकारात्मक सोच का विकास हो जाए,
संवेदना जीवन का संबल बन जाए।
Joginder Singh Nov 2024
जब जेबें खाली हो गईं,
बैठे बैठे खाते रहे,
कमाया कुछ नहीं,
घरों में बदहाली आ गई,
तब आई
गाँव में रह रहे
सगे संबंधियों की याद।
सोचा, अपनों के पास जाकर ,
फरियाद करेगें ,
उधार के रूप में
मदद के लिए
अनुरोध करेंगे,
बंधु बांधवों के सम्मुख ।
चल पड़े जैसे तैसे पैदल
थके हारे, प्रभु आसरे,गिरते पड़ते,
एक के पीछीक सभी लोग,
तज के सारे लालच लोभ ।
बहुत सारे बीच मार्ग में
भूख और लाचारी,
लूटपाट, मारा मारी ,
धोखाधड़ी का बने शिकार ।
ऊपर से कोरोना का भय विकराल,
लगा कर रहे ताण्डव महाकालेश्वर
बाबा भोलेनाथ
सब की परीक्षा ले रहे,
क्रोध में हैं महाकाल।

देख दुर्दशा बहुतों की,
सुख सुविधा वंचित दिन हीनों की,
बहुतों की आँखों में अश्रु आए झर।
उन्होंने मदद हेतु हाथ बढ़ाए,
वे मानवता के सेतु बन पाए ।
देख, महसूस, दुर्दशा,उन सभी की,
बहुतों को रोना आ गया।
सोचते थे घड़ी घड़ी।
यह कैसा आपातकाल आ गया।
यह कैसा समय आ गया।
अकाल मृत्यु का अप्रत्याशित भय
उनकी संवेदना, सहृदयता,
सहयोग, सौहार्द,
सहानुभूति को खा गया।
सब सकते में थे।
यह कैसा समय आ गया।
अकाल मृत्यु का भय
सबके मनों में घर कर गया।मृत्यु का चला
अनवरत सिलसिला
बहुतों के रोजगार खा गया।
सामाजिक सुरक्षा की मज़बूत दीवारों को ढा गया।
रिश्तेदारों ने दुत्कार दिया।
सोचते थे सब तब
अब कैसे प्राप्त होगी सुरक्षा ढाल?
सब थे बेहाल,
बहुत से मजदूर वर्ग के
बंधु बांधव थे फटेहाल।
कौन रखेगा अब
आदमी और उसकी आदमियत का ख्याल ?

आज वह दौर बीत गया है।
बहुत कुछ सब में से रीत गया है।
अब भी
बहुल से लोग
कोरोना का दंश झेल रहे हैं।
उनकी आर्थिकता बिल्कुल चरमरा चुकी है,
अब भी  कभी कभी
बीमारी,लाचारी, हताशा, निराशा ,
उन्हें आत्महत्या के लिए बाध्य करती है,
कमज़ोर हो चुकी मानसिकता
आत्मघात के लिए उकसाती है।
अभी कुछ दिन पहले मेरे एक पड़ोसी ने
रात्रि तीन बजे करोना काल में आई बीमारी, कमज़ोरी के कारण कर लिया था आत्मघात ।
अब भी कभी कभी
पोस्ट कोरोना  का दुष्प्रभाव
देखने को मिल जाता है।
इसे महसूस कर
अब भी भीतर
भूकंपन सा होता है,
भीतर तक हृदय छलनी हो जाता है।

कोरोना महामारी अब भी जिंदा है,
बेशक आज इंसान,देश,दुनिया,समाज
इस महामारी से उभर चुका है।
मानवता  अभी भी शोकग्रस्त और पस्त है।
कोरोना काल में
बहुत से घरों में
जीवन का सूरज अस्त हुआ था,
वहाँ आज भी सन्नाटा पसरा हुआ है।
वहां बहुत कुछ बिखरा हुआ है,
जिसे समेटा नहीं जा सकता।
Joginder Singh Nov 2024
जारी,जारी,जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीतें हैं,इस जहान की।
यहां
ईमानदार
भूखे मरते हैं,
दिन रात
मतवातर
डरते हैं।
अजब-गजब
रवायत है
इस जहान की।
जारी ,जारी ,जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीते हैं ,इस जहान की।
यहां
बेईमान
राज करते हैं,
दिन रात
जनता के रखवाले
रक्षा करते हैं ,
जबकि
शरारती डराते हैं ,  
और
वे उत्पात मचाने से पीछे नहीं हटते हैं ।
जारी, जारी ,जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीते हैं, इस जहान की।
अजब
सियासत है ,
इस हिरासत की ।
यहां
कैदी
आज़ादी भोगते हैं
और
दिन रात
गुलामों पर बेझिझक भौंकते हैं ।
जारी ,जारी, जारी ,जारी,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीते हैं , इस जहान की।
सभी
यहां खुशी-खुशी
देश की खातिर
लड़ते हैं ।
अजब
प्रीत है
इस देश की।
यहां
सभी
अवाम की खातिर
संघर्ष करते हैं।
जारी ,जारी, जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीतें हैं , इस जहान की।
अजब
अजाब है
इस अजनबियत का।
यहां
सब लोग
नाटक करते हैं।
दिन रात
लगातार
नौटंकी करते हैं।
अजब
नौटंकी जारी है,
पता नहीं
अब किसकी बारी है।
किसने की रंग मंच पर
आगमन की तैयारी है ?
लगता है  
अब हम सब की बारी है।
क्या हम ने कर ली
इसकी खातिर तैयारी है ?
जारी ,जारी ,जारी ,जारी , जारी नौटंकी जारी है।
अजब ,अजब, अजब सी रीतें हैं इस जहान की।
अजब
नौटंकी जारी है।
लगता है ,
अब हम सब की बारी है।
Joginder Singh Nov 2024
गुप्त
देर
तक

गुप्त न रहेगा!
यह नियति है !!
विचित्र स्थिति है!
वह सहजता से  
होता है प्रकट
अपनी संभावना को खोकर।


गुप्त
भेद खुल जाने पर
हो जाता है
लुप्त!
न!न! असलियत यह है कि
वह
अपने भेदों को
मतवातर छुपाता आया है
आज अचानक भेद खुलने से
उसका हुआ है अवसान।  
सारे भेद हुए प्रकट यकायक।
भीतर तक शर्मसार!!
अस्तित्व झिंझोड़ा गया!!लगा दंश!!
कोई अंत की सुई चुभोकर,
कर गया बेचैन।
जगा गया गहरी नींद से,
और स्वयं सो गया गहरी  नींद में।
वह मेरा प्रतिबिंब आज अचानक खो गया है ,
जिसे गुप्त के अवसान के
नाम से नई पहचान दे दी तुमने
जाने अनजाने ही सही,हे मेरे मन!
तुम्हें मेरा सर्वस्व समर्पण।! ,हे मेरे प्यारे , न्यारे मन!
Joginder Singh Nov 2024
दंगा
दंग नहीं
तंग करता है,
यह मन की शांति को
भंग करता है।
दंगाई
बेशक  
अक्ल पर पर्दा पड़ने से
जीवन के रंगों को
न केवल
काला करता है ,
बल्कि वह खुद को
एक कटघरे में खड़ा करता है।

उसकी अस्मिता पर
लग जाता है प्रश्नचिह्न।
दंगे के बाद
भीतर उठे प्रश्न भी मन को
कोयले सरीखा
एक दम स्याह काला
कर देते हैं
कि वहां उजाला पहुंचना
नामुमकिन हो जाता है,
फिर दंगाई
कैसे उज्ज्वल हो सकता है ?
वो तो
समाज के चेहरे पर
स्याही पोतने का काम करता है।
उसके कृत्यों से  
उसका हमसफ़र भी घबराता है।
वह धीरे-धीरे
दंगाई से कटता जाता है।
बेशक वह लोक दिखावे की वज़ह से
साथ निभाता लगे।

दंगा
मानव के चेहरे से
नक़ाब उतार देता है
और असलियत का अहसास कराता है।
दंगाई न केवल नफ़रत फैलाता है,
बल्कि उसकी वज़ह से
आसपास कराहता सुन पड़ता है।

इस कर्कश
कराहने के पीछे-पीछे
विकास के विनाश का
आगमन होता है ,
इसे दंगाई कहां
समझ पाता है?
यह भी सच है कि
दंगा
सुरक्षा तंत्र में सेंध लगाता है।
दंगा
अराजकता फैलाने की
ग़र्ज से प्रायोजित होता है।
इसके साथ ही
यह
समाज का असली चेहरा दिखाता है
और आडंबरकारी व्यवस्था की  
असलियत को
जग ज़ाहिर कर देता है।

भीड़ तंत्र का  
अहसास है दंगा,
जो यदा-कदा व्यक्ति और समाज के
डाले परदे उतार देता है ,साथ ही नक़ाब भी।
यह देर तक
इर्द-गिर्द  बेबसी की दुर्गन्ध बनाये रखता है ,
सोई हुई चेतना को जगाये रखता है।
Joginder Singh Nov 2024
सुनो उपभोक्ता!
बाजार का सच ।
आज
बाजार की गिद्ध नज़र
तुम्हारी जेब पर है।


हे उपभोक्ता जी,
अपनी जेब संभालो ,
उसमें बची खुची रेज़गारी भी डालो ।
भले ही
रेज़गारी को
आप नजरअंदाज करें,
इसे महत्व  न दें, लेकिन ना भूलें,
बूंद बूंद से घट भर जाता है,
व्यापारी भान जोड़कर ही  
धन कमाने का हुनर जान पाता है,
जब कि बहुत बार उपभोक्ता
अठन्नी जैसी रेज़गारी छोड़ देता है।
दिन भर की बीस अठन्नियां जुड़े,
तो दस रुपए की कीमत रखतीं हैं।
मत भूलो,
कभी-कभी खोटा सिक्का भी खुद को
कारगर साबित कर जाता है।  
कंगाली में नैया पार लगा देता है,
इज़्ज़त भी बचा देता है।

सुनो उपभोक्ता!
तुम उपभोग्य सामग्री तो कतई न बनना।
तुम उपभोगवादी सभ्यता में
जन्मे, पले-बढ़े,चमके हो,
उपभोग संयम से करो।
बाजार को
अपनी ताकत का अहसास करा दो।
उसे अपने चौकन्नेपन से चौंका दो ।

व्यापारी भ्रष्टाचार के पंख
आपसी मिली-भगत से फैला न पाएं ,
तुम्हारी जागरूकता है ,इस समस्या का सटीक उपाय।
बाजार का गणित
यानि अर्थशास्त्र
मांग और पूर्ति के सिद्धांत पर चलता है।
इन दोनों में रहे संतुलन तो बाजार फलता-फूलता है।
ध्यान रहे,मांग और पूर्ति का संतुलन
उपभोक्ता के चित्त पर निर्भर करता है।
तुम्हारा चित्त डोला नहीं
कि बाजार तुम पर हावी हुआ।
बाजार में चोरी  , मक्कारी,
मंहगाई ,लूट खसोट,
हेराफेरी का दुष्चक्र शुरू हुआ।
भाई मेरे,
किसी के मकड़जाल
और उसके चालाकी से
निर्मित घेरे में न फंसना।
तुम फंसे नहीं कि
बाजार बहुत बड़ा खेल, खेल देगा।
इसे आजकल खेला (वस्तुत: झमेला)
कह  दिया जाता है।
ऐसे में
सुख ,सुरक्षा का भरोसा
छिन्न भिन्न होता है।
उपभोक्ता ठगा सा महसूस करता है,
और थक हार कर,सिर पकड़ कर बैठ जाता है,
उसका माथा ठनकता है,
वह हतप्रभ हुआ,हताश, निराश हुआ
स्वयं को अकेला करता जाता है।

कुछ ऐसा ही
खेला शेयरों में, सट्टेबाजी में भी है ,
जिस में
अनाड़ी से लेकर खिलाड़ी तक
भरे पड़े हैं।
कल तक
जो हवा में उड़ रहे थे,
वे आज औंधे मुंह गिरे हुए पत्ते जैसा महसूस कर रहे हैं।
सुनो उपभोक्ता!
इस दुनिया के बाजार में
सब गोलमाल है।
यहां सतर्क रहना जरूरी है।
अन्यथा मन में
अंतर्कलह होने से
आदमी अन्यमनस्क हो जाता है।
वह खुद को रुका हुआ
और रूठा हुआ पाता है ।
उसे कहीं ठौर नहीं मिलता है,
वह भीतर तक
इस हद तक
हिल जाता है,
जैसे किसी ने उसे दिया हो
अचानक , अप्रत्याशित  घटनाक्रम बनकर
झकझोर और झिंझोड़,
ऐसे में
धरी की धरी रह जाती मरोड़।
सुनो उपभोक्ता, मेरी बात गौर से सुनो,
इस पर अमल भी करो
ताकि ठगे न जाओ।

बाजार से सामान लेने के बाद
सुरक्षित घर पहुंच पाओ।

डिजिटल खरीददारी भी
सोच समझकर करो ,
अपने भेद अपने भीतर रखो,
निडर,सतर्क रहना तुम्हारा दायित्व है,
कोई क्या करे, मामला वित्त और चित्त का है।१२/०८/२०२०.
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