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Joginder Singh Nov 2024
वह  
कभी कभी मुझे
इंगित कर कहती है,
" देह में
आक्सीजन की कमी
होने पर
लेनी पड़ती है उबासी।"

पता नहीं,
वह सचमुच सच बोलती है
या फिर
कोतुहल जगाने के लिए
यों ही बोल देती अंटशंट,
जैसे कभी कभार
गुस्सा होने पर,
मिकदार से ज़्यादा पीने पर
बोल सकता है कोई भी।


मैं सोचता हूं
हर बार
आसपास फैले
ऊब भरे माहौल में
लेता है कोई उबासी
तो भर जाती है
भीतर उदासी।

मुझे यह तनिक भी
भाती नहीं।
लगता है कि यह तो
नींद के आने की
निशानी है।
यह महज़
निद्रा के आकर
सुलाने का
इक  इशारा भर है,
जिस से जिंदगी सहज
बनी रहती है।
वह अपना सफ़र
जारी रखती है।


पर बार बार की उबासी
मुझे ऊबा देती है।
यह भीतर सुस्ती भरती है।
मुझे इससे डर लगता है।
लगता है
ज़िंदगी का सफ़र
अचानक
रुक जाएगा,
रेत भरी मुट्ठी में से
रेत झर जाएगा।
कुछ ऐसे ही
आदमी
रीतते रीतते रीत जाता है!
वह उबासी लेने के काबिल भी
नहीं रह जाता है।

चाहता हूं... इससे पहले कि
उबासी मुझे उदास और उदासीन करे ।
मैं भाग निकलूं
और तुम्हें
किसी ओर दुनिया में मिलूं ।

वह
अब मुझे इंगित कर
रह रह कर कहती है,
" जब कभी वह  
अपनी प्राण प्रिय  के सम्मुख
उबासी लेती है, भीतर ऊब भर देती है।
उसके गहन अंदर
अंत का अहसास भरा जाता है।
फिर बस तिल तिल कर,
घुटन जैसी वितृष्णा का
मन में आगमन हो जाता है।
यही नहीं वह यहां तक कह देती है
कि उबासी के वक्त
उसे  सब कुछ
तुच्छ प्रतीत होता है।
जब कभी मुझे यह
उबासी सताती है,
मेरी मनोदशा बीमार सी हो जाती है।
जीने की लालसा
मरने लगती है।"

सच तो यह है कि
उबासी के आने का अर्थ है,
अभी और ज़्यादा  सोने की जरूरत है।
   अतः
पर्याप्त नींद लीजिए।
तसल्ली से सोया कीजिए।
बंधु, उबासी सुस्ती फैलाती है।
सो, यह किसी को भाती नहीं है।
इसका निदान,समय पर ‌सोना और जागना है।
उबाऊ, थकाऊ,ऊब भरे माहौल से भागना है।
३/८/२०१०.
Joginder Singh Nov 2024
अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
भूले भटके से
होती है
और
जीवन के बीते दिनों के
भूले बिसरे लम्हों की
आती है याद।

ये भूले बिसरे लम्हे
रचाना चाहते संवाद।
ऐसा होने पर
मैं अक्सर रह जाता मौन ।


आजकल
मैं बना हूं भुलक्कड़
मिलने, याद दिलाने,,..के बावजूद
कुछ ख़ास नहीं रहता याद
नहीं कायम कर पाता संवाद।

हां, कभी-कभी भीतर
एक प्रतिक्रिया होती है,
'हम कभी साथ साथ रहें हैं,
यकीन नहीं होता!
कसमें वादे करने और तोड़ने के जुर्म में
हम शरीक रहे हैं,
दोस्ती में हम शरीफ़ रहे हैं,
यकीन नहीं होता।'

अपने और जमाने की
खुद ग़र्ज हवा के बीच
        यारी  दोस्ती,
गुमशुदा अहसास सी
होकर रह गई है
एकदम संवेदनहीन!
और जड़ विहीन भी।


अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
अख़बार, रेडियो पर बजते नगमों,
टैलीविजन पर टेलीकास्ट हो रहे
इंटरव्यू के रूप में
होती है।
सच यह है कि
दोस्त की उपलब्धि से जलन,
अपनी  नाकामियों से घुटन,
आलोचक वक्त की मीठी मीठी चुभन,सरीखी
तीखी प्रतिक्रियाएं होती हैं भीतर
पर... अपने भीतर व्यापे शातिरपने की बदौलत,
सब संभाल जाता हूं...
खुद को खड़ा रख पाता हूं,बस!
खुद को समझा लेता हूं,

....कि समय पर नहीं चलता किसी का वश!!
यह किसी को देता यश, किसी को अपयश,बस!!

अब
कभी कभार
दोस्त, दोस्ती का उलाहना देते हुए मिलते हैं,
तो उनके सामने नतमस्तक हो जाता हूं
उन को हाथ जोड़कर,
उन से हाथ मिलाया,
और अंत में
नज़रों नज़रों से
फिर से मिलने के वास्ते वायदा करता हूं
भीतर ही भीतर
न मिल सकने का डर
सतत् सिर उठाता है, इस डर को दबा कर
घर वापसी के लिए
भारी मन से क़दम बढ़ाता हूं।
कभी कभी
दोस्तों से मुलाक़ात
किसी दुस्वप्न सरीखी होती है
एकदम समय की तेज तर्रार छुरी से कटने की मानिंद।
९/६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
कम दाम में
बादाम खाने हों
तो बंदा चतुर होना चाहिए।

अधिक दाम दे कर
धक्के खाने हों
तो बंदा अति चतुर होना चाहिए।

एक बात कहूं
बंदा,जो सुन ले, सभी की
करे अपनी मर्ज़ी की ।
वह कतई न ढूंढना चाहे
किसी में ‌कोई भी कमी पेशी।
ऐसा इन्सान
न केवल सम्मान पाता है,
सभी से हंसी-मजाक कर पाता है,
बल्कि सभी की कसौटी पर खरा उतरता है।
ऐसा शख्स आज़ाद परिंदे सरीखा होता है,
जिससे दोस्ती का चाहवान हर कोई होता है।
ऐसा आदमी न केवल भाई की कमी हरता है,
बल्कि उसकी सोहबत से हर कोई खुशी वरता है।
मित्र वर! एक पते की बात कहूं,
वह शख्स मुझे तुम्हारे   जैसा लगता है।


दोस्त,
आज़ाद परिंदों की सोहबत कर
ताकि मिट सकें बेवजह के डर ।
कतई न अपनी आज़ादी
किसी आततायी के पास गिरवी रख ,
ताकि तुम अपनी मंजिल की तरफ़ बेख़ौफ़ सको बढ़ ।

१०/०६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
आईना
जो दीवार से सटा था ,
अर्से से उपेक्षित सा टंगा था ।
जिस पर धूल मिट्टी पड़ती रही ,
संगी दीवार से पपड़ियां उतरती रहीं ।
आजकल बेहद उदासीन है ,
उसका भीतर अब हुआ गमगीन है ।
बेशक आसपास उसका बेहिसाब रंगीन है ।

आज बीते समय की याद में खोया है।


रूप
जो मनोहारी था,
मंत्र मुग्ध करता था ।
जो था कभी
सचमुच
आकर्षण से भरा हुआ,
अब हुआ फीका और मटमैला सा ।
Joginder Singh Nov 2024
तुम:  नाम में क्या रखा है?

मैं :सब कुछ!
   यह अदृश्य पहचान का जो ताज सब के सिर पर रखा है।
    यह नाम ही तो है।
तुम: ‌ठीक ।
  ‌    काम से होती है जिस की पहचान,वह नाम ही तो है।
      यह न मिले तो आदमी रहे परेशान, वाह,नाम ही तो है।
    ‌‌  जो सब को भटकाता है।
      ‌ ‌यह बेसब्री का बनता सबब।
मैं:सो तो है, नाम विहीन आदमी सोता रह जाता है।
‌     उस के हिस्से के मौके कोई अनाम खा जाता है।
      ऐसा आदमी मतवातर भीड़ में खो जाता है।
  तुम: खोया आदमी! सोया आदमी!!
        किसी काम धाम का नहीं जी!
        करो उसकी अस्मिता की खोज जी।
     ‌    कहीं हार न जाए, वह जीवन की बाजी।
   मैं : इससे पहले आदमी भीड़ में खो जाए ।
        उसकी भाड़ में जाए , वाली सोच बदली जाए।
        यही है उस   की मानसिकता में बदलाव लाने का
         तरीक़ा।
    तुम: सब कुछ सच सच कहा जी।
          क्या वह इसके लिए होगा राजी?
      मैं: आदमी जीवन में पहचान बनाने में जुटे ।
         इस के लिए वह अपनी जड़ों से नाता जोड़े ।
           ऐसी परिस्थिति पैदा होने से उसका वजूद बचेगा।
              वरना वह यूं ही मारा मारा भटकता फिरेगा।
Joginder Singh Nov 2024
कभी-कभी
झूठ मजबूर होकर
बोला जाता है,
उसे कुफ्र की हद तक तोला जाता है।
और कोई जब
इसे सुनने, मानने से
कर देता इन्कार,
तब उस पर  दबाव बनाया जाता है,
शिकंजा कसा जाता है।

ऐसे में
बचाव का
झट  से   एकमात्र उपाय
झूठ का सहारा  नजर आता है ,
ऐसा होने पर,
झूठ डूबते का सहारा होता है।
आदमी
जान हथेली पर रखकर
बेहिसाब दबाव से जूझते हुए
जान लेता है
जीवन का सच!
विडंबना देखिए!!
यह सच
नख से शिखा तक
झूठ से होता है
पूर्णतः सराबोर,
चाहकर भी आप जिसका
ओर छोर पकड़ नहीं पाते ,
भले ही आप कितने रहे हों विचलित।
कभी-कभी
झूठ,सच से ज़्यादा
रसूख और असर रखता है,
जब वह प्राण रक्षक बनता है।
आदमी झूठ का असर महसूस करता है।
ऐसे दौर में
झूठ,सच पर हावी होकर
विवेक तक को धुंधला देता है।
आदमी गिरावट का हो जाता शिकार।

सोचता हूं ...
आजकल कभी कभी
आखिर क्या है आदमी के भीतर कमी?
अच्छा भला, कमाता खाता ,
आदमी क्यों नज़र से गिर जाता है?

रख रहा हूं ,
अपने आसपास का घटनाक्रम।
जब झूठ
सच को
पूर्णतः ढकता है,
आदमी भीतर तक थकता है
और तब  तब
अन्याय का साम्राज्य फलता-फूलता है।

आजकल
लोग लोभी होकर
बहुत कुछ नज़र अंदाज़ करते हैं,
अपने अन्त की पटकथा को निर्देशित करते हैं।
Joginder Singh Nov 2024
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब
अलग अलग, रंग ढंग ओढ़े
विश्व रचयिता की पूजा अर्चना,
इबादत और वन्दना।

प्यार को हवस,
विश्वास को विश्वासघात
समझे जाने का खतरा
अपने कंधों पर उठाये
चल रहे हैं लोग
तुम्हारे घर की ओर!
तुम्हारे दिल की ओर!!

तू पगले! उन्हें क्यों रोकता है?
अच्छा है, तुम भी उनमें शामिल हो जा ।
अपने उसूलों , सिद्धांतों की
बोझिल गठरी घर में छोड़ कर आ ।
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब मौज ।
तुम भी इसकी करो खोज।
न मढ़ो, अपनी नाकामी का किसी पर दोष।
प्यारे समझ  लें,तू बस!
जीवन का सच
कि अब सलीके से जीना ही
सच्ची इबादत है।
इससे उल्ट चलना ही खाना खराबी है,
अच्छी भली ज़िन्दगी की बर्बादी है।
   ९/६/२०१६.
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