कोई
बरसात के मौसम की तरह
बिना वज़ह
मुझ पर
बरस गया।
सच! मैं सहानुभूति को
तरस गया,
यह मिलनी नहीं थी।
सो मैं खुद को समझा गया,
यहाँ अपनी लड़ाई
अपने भीतर की आग़ धधकाए रख कर
लड़नी पड़ती है।
अचानक
कोई देख लेने की बात कर
मुझे टेलीफ़ोन पर
धमकी दे गया।
मैं..... बकरे सा
ममिया कर रह गया,
जुर्म ओ सितम सह गया।
कुछ पल बाद
होश में आने के बाद
धमकी की याद आने के बाद
एक सिसकी भीतर से निकली।
उस पल खुद को असहाय महसूस किया।
जब तब यह धमकी
मेरी अंतर्ध्वनियों पर
रह रह हावी होती गई,
भीतर की बेचैनी बढ़ती गई।
समझो बस!
मेरा सर्वस्व आग बबूला हो गया।
मैंने उसे ताड़ना चाहा,
मैने उसे तोड़ना चाहा।
मन में एक ख्याल
समय समंदर में से
एक बुलबुले सा उभरा,
...अरे भले मानस !
तुम सोचो जरा,
तुम उससे कितना ही लड़ो।
उसे तोड़ो या ताड़ना दो।
टूटोगे तुम ही।
बल्कि वह अपनी बेशर्म हँसी से
तुम्हे ही रुलाएगा और करेगा प्रताड़ित
अतः खुद पर रोक लगाओ।
इस धमकी को भूल ही जाओ।
अपने सुकून को अब और न आग लगाओ।
वो जो तुम्हारे विरोध पर उतारू है,
सिरे का बाजारू है।
तुम उसे अपशब्द कह भी दोगे ,तो भी क्या होगा?
वो खुद को डिस्टर्ब महसूस कर
ज़्यादा से ज़्यादा पाव या अधिया पी लेगा।
कुछ गालियां देकर
कुछ पल साक्षात नरक में जी लेगा।
तुम रात भर सो नहीं पाओगे।
अगले दिन काम पर
उनींदापन झेलते हुए, बेआरामी में
खुद को धंसा पाओगे।
यह सब घटनाक्रम
मुझे अकलमंद बना गया।
एक पल सोचा मैंने...
अच्छा रहेगा
मैं उसे नजरअंदाज करूँ।
खुद से उसे न छेड़ने का समझौता करूँ ।
यूं ही हर पल घुट घुट कर न मरूं ।
क्यों न मैं
उस जैसी काइयां मानस जात से
परहेज़ करूँ।
२७/०७/२०१०.
E