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Joginder Singh Nov 2024
आज
फिर से
झूठ बोलना पड़ा!
अपने
सच से
मुँह मोड़ना पड़ा!
सच!
मैं अपने किए पर
शर्मिंदा हूँ,
तुम्हारा गला घोटा,
बना खोटा सिक्का,
भेड़ की खाल में छिपा
दरिंदा हूँ।
सोचता हूँ...
ऐसी कोई मज़बूरी
मेरे सम्मुख कतई न थी
कि बोलना पड़े झूठ,
पीना पड़े ज़हर का घूंट।

क्या झूठ बोलने का भी
कोई मजा होता है?
आदमी बार बार झूठ बोलता है!
अपने ज़मीर को विषाक्त बनाता है!!
रह रह अपने को
दूसरों की नज़रों में गिराता है।

दोस्त,
करूंगा यह वायदा
अब खुद से
कि बोल कर झूठ
अंतरात्मा को
करूंगा नहीं और ज्यादा ठूंठ
और न ही करूंगा
फिर कभी
अपनी जिंदगी को
जड़ विहीन!
और न ही करूंगा
कभी भी
सच की तौहीन!!
१६/०२/२०१०
Joginder Singh Nov 2024
खाक अच्छा लगता है
जब अचानक बड़ा धक्का लगता है
भीड़ भरे चौराहे पर
जिंदगी यकायक अकेला छोड़ दे !
वह संभलने का मौका तक न दे!!
पहले पहल आदमी घबरा जाता है ,
फिर वह संभल कर,
आसपास भीड़ का अभ्यस्त हो जाता है,
और खुद को संभालना सीख जाता है।
जिंदगी दिन भर तेज रफ्तार से भाग रही है।
आदमी इस भागम भाग से तंग आ कर
क्या जिन्दगी जीना छोड़ दे ?
क्यों ना वह समय के संग आगे बढ़े!
आतंक के साए के निशान पीछे छोड़ दे!
जब तक जीवनधारा नया मोड़ न ले !
जिंदगी की फितरत रही है...
पहले आदमी को भंवरजाल में फंसाना,
तत्पश्चात उसे नख से शिखर तक उलझाना।
सच यह है... आदमी की हसरत रही है,
भीतर के आदमी को जिंदादिल बनाए रखना।
उसे आदमियत की राह पर लेकर जाना।
थके हारे को मंज़िल के पार पहुंचाना।
बड़ा अच्छा लगता है ....
पहले पहल आदमी का लड़खड़ाना,
फिर गिरने से पहले ही, खुद को पतंग सा उठाना
....और मुसीबतों की हवा से लड़ते हुए ... उड़ते जाना।
१५/०२/२०१०.
Joginder Singh Nov 2024
पिता श्री,
एक दिन अचानक
आपने कहा था जब,
"मैं तुम से
कुछ भी अपेक्षा नहीं करता।
बस तुम्हें
एक काम सौंपना चाहता हूँ।
वह काम है...
जाकर अपनी प्रसन्नता खोजो!"
यह सुनकर
अनायास
तब मैं खिलखिलाकर हंस पड़ा था ।
  

अब महसूस होने लगा है,
जीवन में कुछ ठगा गया है।
अब क़दम दर कदम लगता है कि
आजकल
प्रसन्नता ढूंढ़ी जाती है
चारों ओर....
अंदर क्या बाहर...
सुप्रिया के इर्द गिर्द भंवरे सा मंडरा कर
शेखचिल्ली बन खयाली पुलाव पका कर
अपनों को मूर्ख बना कर


प्रसन्नता ढूंढना अब एक चुनौती बन गई है
सौ,सौ प्रयास के बाद
फिर भी कुछ गारंटी नहीं है कि वह मिले,
मिले तो किसी दिलजले मनचले को जा मिले
अन्यथा.... असफलता का चल पड़ता एक सिलसिला,
आदमी खुद के भंवरजाल में धंसा,
किस से करे शिकवा गिला।
आदमी का अंतर्मानस बन जाता एक शिला!

पिता,
आज अंतर्द्वंद्वों से घिरा
मैं आप के कहे पर करता हूँ सोच विचार
तो लगने लगा है कि
सचमुच प्रसन्नता खोजना,
अपनी खुशी तलाशना,
आखिरकार उसे दिल ओ दिमाग से वरना,
किसी एवरेस्ट सरीखी दुर्गम शिखर पर चढ़ना है ।


तुम्हारा  "अपनी प्रसन्नता खोजो " कहना
आज की युवा पीढ़ी के लिए एक अद्भुत पैग़ाम है।

आज मैं बुध बनना चाहता हूँ।
पर सच है कि मैं इर्द गिर्द की चकाचौंध से भ्रमित
बुद्धू सा हो गया हूँ।
बेशक प्रबुद्ध होने का अभिनय कर
लगातार एक फिरकी बना नाच रहा हूँ।

आपका अंश!
Joginder Singh Nov 2024
यह कतई झूठ नहीं
कि अधिकार पात्र व्यक्ति को मिलते हैं।
तुम्हीं बताओ...
कितने लोग
अधिकारी बनने के वास्ते
सतत संघर्ष करते हैं?


मुठ्ठी भर लोग
भूल कर दुःख,  दर्द , शोक
जीवन में तपस्या कर पाते हैं;
वे निज को खरा सिद्ध कर
कुंदन बन पाते हैं।
    
ये चन्द मानस
रखें हैं अपने भीतर अदम्य साहस
और समय आने पर
तमाशबीनों का
उड़ा पाते हैं उपहास।

सच है, तमाशबीन मानस
अधिकारों को
नहीं कर पाते हैं प्राप्त।
वे समय आने पर
निज दृष्टि में
सतत गिरते जाते हैं,
कभी उठ नहीं पाते हैं,
जीवन को नरक बनाते हैं,
सदा बने रहते हैं,
अधिकार वंचित।
जीवन में नहीं कर पाते
पर्याप्त सुख सुविधाएं संचित।

उठो, गिरने से न डरो,
आगे बढ़ने का साहस भीतर भरो।
सतत बढ़ो ,आगे ही आगे।
अपने अधिकारों की आवश्यकता के वास्ते ।
इसके साथ साथ कर्तव्यों का पालन कर,
खोजो,समरसता, सामंजस्य, सद्भावना के रक्षार्थ
नित्य नूतन रास्ते।

तभी अधिकार बचेंगे
अन्यथा
एक दिन
सभी यतीमों सरीखे होकर
दर बदर ठोकरें खाकर
गुलाम बने हुए
शत्रुओं का घट भरते फिरेंगे।
फिर हम कैसे खुद को विजयपथ पर आगे बढ़ाएंगे?
Joginder Singh Nov 2024
"दंभ से भरा मानस
नरक ही तो भोगता है, ... । "
इसका अहसास
दंभी होने पर ही हुआ।
वरना इससे पहले मैं
नासमझी से भरा
जीवन को समझता फिरा
महज़ एक जुआ।
अब मानता हूँ,
"जब जब हार मिली,
तब तब आत्मविश्वास की चूल हिली ।"
  १७/१०/२०२४
Joginder Singh Nov 2024
प्रवास की चाहत
बेशक भीतर छुपी है,
परन्तु प्रयास
कुछ नहीं किया,
जहां था, वहीं रुका रहा।
दोष किस पर लगाऊं?
अपनी अकर्मण्यता पर..?
या फिर अपने हालात पर?
सच तो यह है कि
असफलता
बहानेबाजी का सबब भी बनती है।
सब कुछ समझते बूझते हुए भी
भृकुटी  तनती है।
    १७/१०/२०२४
Joginder Singh Nov 2024
निज के रक्षार्थ
दूर रखिए
स्वयं से स्वार्थ।
कैसे नहीं अनुभूत होगा परमार्थ?
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