चार दिन की चांदनी में, बन गया खुद ही निशाना।
होगया बरबाद इतना, रहा नहीं खुद का ठिकाना।
कैसे बनाए अब वो आशिक, अपना नया आशियाना।
आता नहीं है उसको अपनी बात को दर्शाना।
दुनिया का है काम उसको रोज़ कहीं फसाना।
पर इनकी हरकतों से वो, बिलकुल है अंजाना।
चार लोगों का ज़िम्मा है उसे हर बात पे डराना।
वो रह जाता है पीछे, बिन सुनाए अपना अफसाना।
कब अच्छा हो पाएगा, ये ज़ालिम सा ज़माना।
यहां जालिमों का काम है, सबकी खुशियों को मिटाना।
अच्छे लोगों को ही आता, बस रिश्तों को निभाना।
बुरे को बस आता पीछे, उन रिश्तों से हट जाना।
रिश्ते होते हैं ऐसे, जैसे कोई ख़ज़ाना।
पर दुनिया को बस आता है, उन रिश्तों को हर्जाना।
अब उस आशिक को भी है, उस अफसाने को सुनना।
लेकिन दुनिया धुंड लेती, ना सुनने का नया बहाना।
जानता है कि उसे, अब किसी को नहीं अपनाना।
उसका काम रह गया बस, खुद को तसल्ली दिलाना।
नहीं बना पाया वो, नया अपना आशियाना।
क्यूंकि बदल सकता नहीं, ये ज़ालिम कभी ज़माना।
Riya