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तुम आते हीं रहो देर से हम रोज हीं बतातें है,
चलो चलो हम अपनी अपनी आदतें दुहराते हैं।
लेट लतीफी तुझे प्रियकर नहीं समय पर आते हो,
मैं राही हूँ सही समय का नाहक हीं खिसियाते हो।

तुम कहते हो नित दिन नित दिन ये क्या ज्ञान बताता हूँ?
नही समय पर तुम आते हो कह क्यों शोर मचाता हूँ?
जाओ जिससे कहना सुनना चाहो बात बता देना,
इसपे कोई असर नही होगा ये ज्ञात करा देना।

सबको ज्ञात करा देना कि ये ऐसा हीं वैसा है,
काम सभी तो कर हीं देता फिर क्यों हँसते कैसा है?
क्या खुजली होती रहती क्यों अंगुल करते रहते हो?
क्या सृष्टि के सर्व नियंता तुम हीं दुनिया रचते हो?

भाई मेरे मेरे मित्र मुझको ना समझो आफत है,
तेरी आदत लेट से आना कहना मेरी आदत है।
देखो इन मुर्गो को ये तो नित दिन बाँग लगाएंगे,
जब लालिमा क्षितिज पार होगी ये टाँग अड़ाएंगे।

मुर्गे की इस आदत में कोई कसर नहीं बाकी होगा,
फ़िक्र नहीं कि तुझपे कोई असर नहीं बाकी होगा।
तुम गर मुर्दा तो मैं मुर्गा अपनी रस्म निभाते है,
मुर्दों पे कोई असर नहीं फिर भी आवाज लगाते है।

मुर्गों का काम उठाना है वो प्रति दिन बांग लगाएंगे,
मुर्दों पे कोई असर नहीं होगा जिंदे जग जाएंगे।
जिसका जो स्वभाव निरंतर वो हीं तो निभाते हैं,
चलो चलो हम अपनी अपनी आदतें दुहरातें हैं।

अजय अमिताभ सुमन
हरेक ऑफिस में कुछ सहकर्मी मिल हीं जाएंगे जो समय पर आ नहीं सकते। इन्हें आप चाहे लाख समझाईये पर इनके पास कोई ना कोई बहाना हमेशा हीं मिल हीं जाएगा। यदि कोई बताने का प्रयास करे भी तो क्या, इनके कानों पर जूं नहीं रेंगती। लेट लतीफी इनके जीवन का अभिन्न हिस्सा होता है। तिस पर तुर्रा ये कि ये आपको हीं पाठ पढ़ाने लगते हैं । ऐसे हीं महानुभावों के चरण कमलों में आदरपूर्वक सादर नमन है ये कविता , मिस्टर लेट लतीफ़ ।

— The End —