काली रात.........
इस काली रात कि धुंध में,
इक दीपक ऐसा जला है,
अँधेरों को चिरते हुऐ,
इक रोशनी निकला है....
रात जैसे ठहर सी गयी हो,
अन्धेरों का साया हो,
इक रोशनी निकला है,
जैसे अभिलाषा की छाया हो....
आँख अन्धी हो गयी है,
काला सा एक साया है,
यह मेरी एक्क भूल है,
या फिर अंधकार का छाया है....
दूर से देखा था मैंने,
ईक समुंदर अंधकार का,
पास गया तो देखा मैंने,
यह तो बस एक हिस्सा है
मेरे अहंकार का.....
लोग हमेसा डरते हैं,
ना जाने क्या कहते है,
तेरा रूप अनोखा है,
नही किसी ने देखा है......
रातों को मैं अक्सर उठता,
इक बात मन को पिरोता,
क्या तुझे नीँद नहीं आता है,
जब भी तू थक जाता है........
काले बादल जब मँडराते है,
मन को बहुत ये भाते है,
अक्सर आगे बढ़ने के सपने ,
काली रातों को आते है........
मैं भी कभी डर जाता हूँ,
तेरे इस अंधकार से,
दिन में कहा छुप जाता है तू,
रोशनी की मार से.........
तेरा भी रूप निराला है,
तू तो बिल्कुल काला है,
छुप जा जल्दी से तू कही,
सूरज निकलने वाला है........
तू तो इक काला समुंदर है,
तुझमे कितनी सच्चाई है,
न जान सका है कोई तुझे,
तुझमे कितनी गहराई है,
--सुधीर चौरसिया….