Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Apr 2019
छत पर सोते ,तारे गिनते
ध्रुव और सप्त ऋषि देखते
सूरज घूमता है
पृथ्वी स्थिर है
ऐसी बेकार बातें सुनते।

श्रवन की कावड़ का सुनते
लेकिन एक घड़ा पानी को लड़ते
चंदा के उजियारे में रहकर
उसकी ही निंदा करते
तारा टूटे तो हर - हर करते
कितना भयंकर आडंबर सुनते।

बारिश होने पर
बिस्तर ना सूखे बचते
बादल की गर्जन पर
भीमसेन - भीमसेन रटते
सोचो कितना अंधविश्वास में जीते।

गर्मी में पानी कहां था
घी मिल जाता
कोई पानी ना देता
परिंदे भी कहां रहते थे
वो तो प्यासे ही मर जाते थे
या फिर देशांतर गमन करते थे

चादर ना‌ थी ओढने को
बस ऊंटबालों का कंबल चुभता
ना तन पर कमीज होता
जूता तो कोई बिरला पहनता।

दादी मां की कथा में
भूत प्रेत की गाथा सुनते
पूरी जिंदगी झूठा डरते
हार्ट अटैक की मौत को
भूत द्वारा तोड़ा बताते।

पढ़ने को पाठशालाएं कहां थी
कहां औषधालय थे
बस घास - फूस से घाव भरते
कई तो इंफेक्शन से ही मरते ।

ऊंट घोड़ों की सवारी करते
आधे तो पैदल ही चलते
साठ किलोमीटर के सफर में
दो दिन और एक रात लगते ।

अब आदमी परिंदे की तरह उड़ता है
अपना भला-बुरा अच्छी तरह समझता है
अपने घर से ही दफ्तर का काम कर लेता है
विज्ञान के आविष्कारों ने
आकाश - पाताल एक बना दिया है
बंद कमरों में रहकर भी
अब कुछ छुपा नहीं रहता है।

बस अब मनुष्य के पास समय नहीं है
इसलिए सिकुड़ा- सिकुड़ा रहता है
फिर भी बेबस व लाचार नहीं है
अवसर और ज्ञान उसके पास है
इसलिए आज का आदमी खास है।
Mohan Sardarshahari
Written by
Mohan Sardarshahari  56/M/India
(56/M/India)   
  236
     Jayantee Khare and Indiana
Please log in to view and add comments on poems