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Mar 2018
तुमसे से मिला
आईने को देख
चलता चला।।।
चलता चला।।।

तुम देख रही थी।।।
और मैं खुद का ही पिछा करता जा रहा था
।।।

क्या कहता ?
जब खुद से ही हु लापता।।।



तेरी आँखों को नज़र के सामने से निहारा आईना के प्रतिबिंब से।।।
जब तेरी नज़र मेरी नज़र से न टकराई थी।।

फिर ।।।
देखता रहा।।।समुंद्र की गहरायी
सूरज की तीव्रता से।।।
और खुद ही कैद हो गया।।।
आईने के अंदर दूसरी दुनिया में।।।
और भुलता हुआ मैं जो भी हुआ।।।
शायद में गलत था।।।
और गलती कर बैठा।।
दारू का कांच टुटा और दिल भी शायद।।।
Ravindra Kumar Nayak
Written by
Ravindra Kumar Nayak  30/M/India
(30/M/India)   
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